________________
भूमिका
होने पर एवं काल परिपक्व होने पर, जब जीव को ऐसी समझ प्राप्त होती है कि पौद्गलिक वस्तुओं की प्राप्ति या अप्राप्ति हमें सुखी या दु:खी नहीं करती, परंतु सुख दु:ख के कारण तो अपने ही गुण या दोष हैं, अथवा अपने ही शुभ-अशुभ भाव या शुभ-अशुभ प्रवृत्ति हैं, तब उसकी दिशा बदल जाती है। संसार तरफ की उसकी रुचि पलट जाती है, आत्मा को दूषित करने वाले दोष ही मेरे दुःख के कारण हैं, ऐसा विवेक प्राप्त होता है। इससे उसमें दोषों की खटक पैदा होती है एवं दोषों से मलिन बनी हुई आत्मा को शुद्ध करने की भावना जागृत होती है। ऐसी भावना वाले जीव को शास्त्रीय भाषा में अपुनर्बंधक कहा जाता है। यहाँ से प्रारंभ करके छठे गुणस्थान तक के जीव प्रतिक्रमण के अधिकारी हैं।
जिज्ञासा : अपुनर्बंधक से नीचे की कक्षा के जीव या प्रमत्त संयत से ऊपर की कक्षा के जीव प्रतिक्रमण के अधिकारी क्यों नहीं हैं ?
तृप्ति : अपुनर्बंधक से नीचे की कक्षा के जीव में तो आत्मा की पहचान ही नहीं होने से आत्मा को शुद्ध करने की भावना ही प्रकट नहीं होती, इसलिए वे वास्तव में प्रतिक्रमण के अधिकारी नहीं होते । जबकि प्रमत्त संयत से ऊपर की कक्षा के साधकों में प्रमादादि दोष नहीं होते, इसलिए उनके जीवन में स्वीकार किए हुए व्रत में कोई अतिचार या दोषों की संभावना नहीं रहती है। अत: प्रमत्त संयत से ऊपर के अप्रमत्त संयत इस प्रकार के (पाप से पीछे लौटने वाले) प्रतिक्रमण के अधिकारी नहीं होते । निश्चयनय से प्रतिक्रमण के अधिकारी : __ हमने शुरू में ही देखा कि प्रतिक्रमण की यह क्रिया आत्मशुद्धि की क्रिया होने से अध्यात्म की या योगमार्ग की क्रिया बन जाती है।
निश्चयनय की दृष्टि से योग के अधिकारियों के आधार पर यदि प्रतिक्रमण के अधिकारी की विचारणा करें तो देशविरतिधर या सर्वविरतिधर महात्मा ही प्रतिक्रमण के अधिकारी होंगे क्योंकि पाप से अटकने का भाव विरति रूप है, एवं यह विरति का परिणाम उस प्रकार के चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से ही प्राप्त होता है और ऐसा क्षयोपशम पाँचवें एवं छठे गुणस्थानकवर्ती देशविरतिधर या सर्वविरतिधर में ही संभवित है। इसलिए निश्चयनय के अनुसार वे ही प्रतिक्रमण के अधिकारी हैं।