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वंदित्तु सूत्र
संबंधी पच्चक्खाण' नामका छठा आवश्यक करता है। प्रतिक्रमण एवं कायोत्सर्ग ये दो आवश्यक दोषों की शुद्धि के लिए हैं, जबकि यह आवश्यक, पाप की विरति के लिए है। इस आवश्यक में चौविहार आदि पच्चक्खाण करके साधक आहार पानी के विषय में घूमते हुए मन का निरोध करता है एवं देशावगासिक का पच्चक्खाण करके दुनिया भर की पाप प्रवृत्तियों का संक्षेप करता है।
इस प्रकार वर्तमान का प्रतिक्रमण छ: आवश्यक का समूह है जो आत्मशुद्धि का एक अनन्य उपाय है। प्रतिक्रमण का अधिकारी : __ प्रतिक्रमण आत्मशुद्धि का एक अनन्य उपाय है, ऐसी समझ मिलते ही आत्मशुद्धि के चाहक को सहज ही जिज्ञासा होती है कि यह प्रतिक्रमण कौन कर सकता है ? प्रतिक्रमण का अधिकारी कौन है ? क्योंकि विचारक व्यक्ति समझता है कि जिस कार्य का जो अधिकारी हो यदि वह उस कार्य को करे तो ही उसे सफलता मिलती है। इसलिए कार्य करने के पहले अधिकारी के बारे में सोचना अनिवार्य बन जाता है।
सामान्यतया सोचें तो जिनमें पाप होने की संभावना हो एवं जो उस पाप से मलिन बनी हुई आत्मा को शुद्ध करने की भावना रखते हो, वैसे अपुनबंधक से लेकर प्रमत्त संयत तक के सर्व साधक प्रतिक्रमण के अधिकारी हैं।
जड़ जैसे बाह्य तत्त्वों को अपने सुख-दुःख का कारण मानकर जीव अनादिकाल से इस संसार में भ्रान्त होकर भ्रमण कर रहा है। उसमें कर्म की कुछ लघुता प्राप्त 5. अहिगारिणो उवाएण होइ सिद्धि समत्थवत्थुम्मि। फलपगरिसभावाओ विसेसओ जोगमग्गम्मि।।८।।
- योगशतक समस्त वस्तुओं में अधिकारी को ही उपायों के सेवन से कार्य की सिद्धि प्राप्त होती है। योग मार्ग मुक्ति रूपी फल का उपाय होने से उसमें विशेष रूप से अधिकारी को ही उपाय द्वारा
सिद्धि प्राप्त होती है। 6. पावं न तिव्वभावा कुणइ, ण बहुमण्णई भवं घोरं उचियठिइंच सेवइ सव्वत्थ वि अपुणबंधो ति।।१३।।
- योगशतक जो जीव १. तीव्र भाव से पाप नहीं करता २. घोर संसार को बहुमान नहीं देता एवं ३. सर्वदा उचित स्थिति का सेवन करता है, उसे अपुनर्बंधक कहते हैं।