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भूमिका
परे होकर समता के भावों में स्थिर होता है, तब ही उसका मन शांत होता है एवं वह आंतरिक पापों का अवलोकन कर सकता है। इसलिए प्रतिक्रमण करने वाले साधक को समता भाव प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम 'सामायिक' नाम के आवश्यक को स्वीकार करना पड़ता है।
इसके बाद पाप को पाप के स्वरूप में पहचानने के लिए और पाप से मुक्त होने के लिए सामायिक में - समता में रहा हुआ जीव, सम्पूर्ण शुद्धभाव में रहे हुए अरिहंत परमात्मा को एवं निष्पाप जीवन जीने वाले गुरु भगवंतो को वंदना करने रूप 'चउविसत्थो' एवं 'वंदन" नाम का आवश्यक करता है, जिससे उसमें पाप के प्रति तिरस्कार भाव पैदा होता है एवं गुणों के प्रति लगाव-झुकाव की वृद्धि होती है जो प्रतिक्रमण के लिए अति जरूरी भाव है।
इन तीन क्रियाओं के बाद 'प्रतिक्रमण' नाम का चौथा आवश्यक होता है। यह प्रतिक्रमण, कोई भी दोषाचरण से आत्मा मलिन हुई हो तो उसकी विशुद्धि के लिए करना होता है एवं शायद प्रत्यक्ष तरीके से कोई दोष ना भी हुआ हो, तो भी आत्मा में पड़े हुए कुसंस्कारों जो भविष्य में दोष का सेवन करवा सकते हैं उनकी शुद्धि के लिए भी यह प्रतिक्रमण करना जरूरी है।
पाप करवाने के मूलभूत कारण हैं मन, वचन एवं काया संबंधी कुसंस्कार । प्रतिक्रमण से इन कुसंस्कारों को दूर करके, विशेष शुद्ध होने के लिए प्रतिक्रमण करने के बाद साधक कायोत्सर्ग' नाम का पाँचवाँ आवश्यक करता है। उस में वह मन को शुभ ध्यान में स्थिर करता है, वाणी को मौन द्वारा स्थिर करता है एवं काया को नियत आसन में स्थिर करके काया की अन्य सर्व चेष्टाओं का त्याग करता है। इस तरह तीन योगों को स्थिर करके अन्तर निरीक्षण द्वारा बची हुई अशुद्धियों को दूर करता है एवं महापुरुषों का आलंबन लेकर अपनी चित्तभूमि को ऐसी तैयार करता है कि पुनः वैसा पाप हो ही नहीं।
ऐसा करने के बाद भी चंचल मन निमित्त मिलने पर पुनः पाप से न जुड़ जाए इसलिए पाँच आवश्यकों के अंत में साधक, पाप से सुरक्षित होने के लिए पाप 4. सामायिक, चउविसत्थो एवं वंदन नाम के आवश्यक का विस्तृत वर्णन सूत्र संवदेना भाग-१ __में करेमि भंते, लोगस्स, इच्छकार आदि सूत्र की विवेचना में प्रस्तुत किया गया है। इन छ:
आवश्यकों का विस्तृत विवरण वंदित्तु सूत्र' की गाथा ४१ में है।