________________
वंदित्तु सूत्र
इसलिए जीवन में रूढ़ बने हुए दोषों को दूर करके गुण प्रकट करने हैं तो खास ध्यान में रखना चाहिए कि अगर उत्सर्ग मार्ग का 'पाप नहीं करना' ऐसा प्रतिक्रमण ना कर सकें तो जिस पाप का प्रतिक्रमण किया है वह पाप तो बार बार नहीं ही होना चाहिए। जब पाप करना पड़े तब भी 'यह करने जैसा है,' ऐसा मानकर खुशी खुशी तो ना ही करें और अगर पाप हो भी जाए तो गुरु भगवंत के पास हृदय पूर्वक सरलता से उसकी आलोचना करें तो ही प्रतिक्रमण अपवाद से भी प्रतिक्रमण हो सकता है। नहीं तो, एक तरफ यह गलत किया है, वैसा बोलकर के प्रतिक्रमण करें और दूसरी तरफ पाप करने जैसा है ऐसा मानकर पाप करें तब तो अपनी प्रतिक्रमण की क्रिया एक नट के नाटक की तरह बन जाती है।
वर्तमान का प्रतिक्रमण :
६
सामान्यतया सोचें तो, जब भी आत्मा क्रोधादि पापों से वापस लौटकर क्षमादि भावों में स्थिर होती है, तभी उसका वास्तविक प्रतिक्रमण होता है, तो भी वर्तमान व्यवहार में दिन या रात्रि के अंतिम भाग में गणधर रचित सूत्रों के सहारे अपने पाप की गवेषणा करके, पाप से मलिन हुई आत्मा को शुद्ध करने की जो क्रिया की जाती है, उसे प्रतिक्रमण कहते हैं ।
यद्यपि प्रतिक्रमण छः आवश्यक में से एक आवश्यक है, फिर भी शास्त्रों में सभी छः आवश्यकों के समूह के लिए भी प्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग किया गया है। १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ( चउविसत्थो ) ३. वंदन ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान : ये छः आवश्यक हैं।
इन छः आवश्यक के समूह को 'प्रतिक्रमण' कहा जाता है क्योंकि प्रतिक्रमण की क्रिया को विशेष शुद्ध बनाने के लिए पूर्व के तीन आवश्यक करने जरूरी है एवं प्रतिक्रमण आवश्यक के बाद पुनः पाप न हो वैसी भूमिका का सर्जन करने के लिए अंतिम दो आवश्यक करने जरूरी हैं।
अस्वच्छ और अस्थिर पानी के नीचे रही हुई चीजें जैसे दिखाई नहीं देतीं, परंतु स्थिर एवं निर्मल पानी के नीचे रही हुई वस्तुएँ आसानी से दिखाई देती हैं। उसी तरह जीव भी जब तक संसार की ममता से उत्पन्न हुए भावों से चंचल बना रहता है, तब तक उसे अपने दोष दिखाई ही नहीं देते। जब वह ममता के भावों से