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भूमिका
प्रतिक्रमण है एवं ‘पाप होने के बाद प्रामाणिकता से उससे दूर रहने का प्रयत्न करना', वह अपवाद से प्रतिक्रमण कहा जाता है।
इसके अलावा बाह्य रीति से अगर प्रतिकमण की क्रिया की जाती हो; पर उसमें पाप से शुद्ध होने की कोई भावना न हो, पुनः पाप न हो ऐसी कोई सावधानी न हो, प्रतिक्रमण करने के बाद भी उसी तरह से और उसी भाव से पाप होते हों तो वह प्रतिक्रमण की क्रिया प्रतिक्रमण नहीं, परंतु प्रतिक्रमणाभास है। ऐसी प्रतिक्रमण की क्रिया के लिए पू. भद्रबाहुस्वामी ने बहुत कठोर शब्दों का प्रयोग करके उसे मायापूर्वक का मृषावाद ही कहा है।
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी म.सा. इसी बात को दोहराते हुए कहते हैं 'मिच्छा मि दुक्कडं देई पातिक, ते भावे जे सेवे; आवश्यक साखे ते परगट, मायामोसने सेवे।' ॥४१॥ २:१७॥
___ - ३५० गाथा का स्तवन साधक द्वारा सावधानी रखने पर भी और इच्छा नहीं होते हुए भी कई बार पुनः पुनः वही पाप हो जाता है तब अगर एसे विचार होंगे कि, यह पाप करने जैसा तो नहीं ही है, कब ऐसा दिन आएगा कि मैं अपने ऊपर नियंत्रण रखकर ऐसी कुचेष्टाओं से मुक्त हो पाऊंगा ? मुझे धिक्कार है कि गुरु भगवंत के पास पाप नहीं करूंगा ऐसा कहकर भी मैं फिर वही पाप कर बैठता हूँ' तो कभी क्रिया से वही पाप होगा फिर भी भाव में अवश्य फर्क पड़ेगा। इसलिए यदि प्रतिक्रमण करने के बाद फिर से पाप हो जाए; परंतु उस पाप को करने जैसा नहीं माना जाए तो वह पाप का प्रतिक्रमण अपवाद से भी प्रतिक्रमण बन सकता है; परंतु यदि ऐसा कोई संकोच न हो, ऐसा पाप तो करना ही पड़ता है, ऐसी पापक्रिया किए बिना संसार में नहीं रह सकते, गुरु भगवंत तो कहते ही रहते है परंतु जो करना पड़ता है वह तो करना ही पड़ता है, अभी पाप कर लें, बाद में आलोचना ले लेंगे।' ऐसे भाववाले जीव कुलाचार से अथवा अंधानुकरणरूप से प्रतिक्रमण करें तो भी उनका प्रतिक्रमण, प्रतिक्रमण नहीं होता। पाप की चुभन बिना 'मैं गलत कर रहा हूँ' ऐसे अहसास बिना, पुनः पुनः भूल होती ही रहे, तो प्रतिक्रमण की इन क्रियाओं का क्या फायदा? इसलिए ही तो शास्त्रकारों ने ऐसी प्रतिक्रमण की क्रिया को धर्मानुष्ठान नहीं, परंतु माया पूर्वक का झूठ (मायामृषावाद) कहा है।