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वंदित्तु सूत्र
इसी बात को दोहराते हुए महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने सीमंधर स्वामी के १२५ गाथा के स्तवन में बताया है कि,
___'मूल पदे पडिक्कमणुं भाख्यं पापतणुं अणकरवु रे...' ___ मूल पद याने उत्सर्ग मार्ग। उत्सर्ग से तो ‘पाप करना ही नहीं उसी को प्रतिक्रमण कहते हैं। जैसे कीचड़ में पाँव गंदे करके पाँव को धोने से बेहतर है कि पाँव को कीचड़ में गंदे होने ही न दें, वैसे ही पाप करके पुनः पुनः प्रतिक्रमण करने से तो पाप ही नहीं करना वह बेहतर है याने चित्तवृत्ति को ऐसी विकसित करें कि वह पाप कर्म से कभी जुड़ें ही नहीं। इसीलिए कहते हैं कि अपने शुद्धभाव में, निष्पापभाव में सदा रहना वही उत्सर्ग से प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमण की यह प्रक्रिया सरल नहीं, यह तो राधावेध साधने जैसी दुष्कर है। राधावेध को साधने की बहुत लोगों की इच्छा होते हुए भी अर्जुन जैसा कोई सात्त्विक पुरुष ही उसे साध सकता है। उसी तरह बहुत से साधकों की भावना होती है कि कभी पाप ना करना पड़े वैसा निष्पाप जीवन जी कर, उत्सर्ग मार्ग का प्रतिक्रमण करूँ, परंतु उनमें से अत्यन्त सावधान बने हुए कुछ जीव ही वैसा करके उत्सर्ग मार्ग का प्रतिक्रमण कर सकते हैं। अन्य साधकों की ऐसी इच्छा होते हुए भी कर्म की पराधीनता, कषायों की प्रबलता एवं सत्त्व की अल्पता के कारण वे बहुत बार चूक जाते हैं और जिस पाप का प्रतिक्रमण किया हो उस पाप का ही उनसे पुनः पुनः सेवन हो जाता है। फिर भी पाप से डरने वाले साधक को अपनी भूल काँटे की तरह चुभती है। सेवन किए हुए पाप आँख में गिरे कंकड़ की तरह खटकते हैं और इस चुभन का नतीजा यह होता है कि, उनमें पाप से मुक्त होने की भावना जागृत होती है। पाप से मुक्त होने की इस भावना को सफल करने के लिए साधक दुःखार्द्र हृदय से गुरु भगवंत के समक्ष आलोचना, निन्दा एवं गर्हा करके, पाप से अशुद्ध हुई आत्मा को शुद्ध करने की जो एक विशिष्ट प्रक्रिया करता है, उसे ही अपवाद से प्रतिक्रमण कहा जाता है।
इस तरह ‘पाप नहीं करना' अर्थात् एक बार जिस पाप का प्रतिक्रमण किया हो वह पाप जीवन में दुबारा नहीं हो ऐसी चित्तभूमि को तैयार करना वह उत्सर्ग से 3. उत्सर्ग मार्ग अर्थात् राजमार्ग, सीधा मार्ग और अपवाद मार्ग अर्थात् कारणिक मार्ग, गली का
मार्ग।