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________________ सातवाँ व्रत गाथा-२१ १६५ अवतरणिका : सामान्य से भोग-उपभोग परिमाण में लगे दोषों की निन्दा करके, अब सचित्त के त्यागी श्रावक को उस विषय में लगे अतिचार बताते हैं। उसके द्वारा त्याग की गई अन्य वस्तु विषयक अतिचारों का भी यथा संभव विचार कर लेना चाहिए। गाथा : सचित्ते पडिबद्धे, अपोल-दुप्पोलिअं च आहारे। तुच्छोसहि-भक्खणया, पडिक्कमे देसि सव्वं ।।२१।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : सचित्ते प्रतिबद्धे, अप्रज्वलित-दुष्प्रज्वलित आहारे। तुच्छ-औषधि-भक्षणात्, दैवसिकं सर्वं प्रतिक्रामामि।।२१।। गाथार्थ : १) सचित्त आहार, २) सचित्त से जुड़ा हुआ आहार, ३) अनपका आहार, ४) अधपका आहार, ५) तुच्छ औषधि भक्षण : इन पाँच अतिचारों में से जो कोई भी अतिचार दिनभर में लगा हो तो उन सबका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशेषार्थ : सचित्ते - सचित्त आहार का उपयोग करना। सचित्त आहार का त्याग करने के बाद, उसका प्रमाण निश्चित करने के बाद, अनजाने में या जल्दी में सचित्त का उपयोग किया हो अथवा प्रमाण से अधिक ले लिया हो तो वह प्रथम अतिचार हैं। (सचित्त) पडिबद्धे - सचित्त के साथ जुड़ी हुई अचित्त वस्तु का उपयोग। सचित्त आहार का त्याग करने के बाद विशेष ज्ञान न होने के कारण पके हुए फल का गर्भभाग अचित्त होता है ऐसा मानकर, उसका बीज निकाल कर गर्भभाग तुरंत ही खा लेने से व्रत में अतिचार लगता हैं । इसमें सचित्त के उपयोग की इच्छा नहीं है, परंतु मान्यता ऐसी है कि गर्भ तो सचित्त नहीं है इसलिए अतिचार ही
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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