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पंचम व्रत गाथा-१७
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विशेषार्थ :
इत्तो अणुव्वए पंचमम्मि - अब पाँचवे अणुव्रत के विषय में। सम्यक्त्व मूलक बारह व्रतों में पाँचवाँ व्रत स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत' है। उसमें ‘स्थूल' अर्थात् बड़ा, ‘परिग्रह' अर्थात् संग्रह करने की वृत्ति एवं परिमाण' अर्थात् उसका प्रमाण निश्चित करना। इस प्रकार धन-धान्य आदि जो नव-प्रकार का परिग्रह होता है, उसे प्रमाणयुक्त करना अर्थात् अमुक वस्तु अमुक प्रमाण से अधिक नहीं रखना, वह ‘स्थूल-परिग्रह-परिमाण-व्रत हैं। जैसे चीजें मर्यादित करना स्थूल परिग्रह परिमाण है, वैसे प्राप्त अथवा अप्राप्त वस्तुओं के प्रति मूर्छा' या ममत्व को घटाना सूक्ष्म परिग्रह परिमाण है। पाँचवे व्रत का स्वरूप :
परिग्रह दो प्रकार का होता है : १) बाह्य परिग्रह, २) अंतरंग परिग्रह । बाहर से दिखाई देते धन, धान्य, मकान आदि का संग्रह बाह्य परिग्रह है, उसे द्रव्य परिग्रह भी कहते हैं: और चार कषाय, नव नोकषाय एवं मिथ्यात्व इन १४ प्रकार के अंतरंग भावों का संग्रह अभ्यंतर परिग्रह है, उसे भाव परिग्रह भी कहते हैं।
ये दोनों प्रकार के परिग्रह रागादि भावों को उत्पन्न करके स्व-भाव-प्राण की हिंसा का निमित्त बनते हैं और धनादि की प्राप्ति, उनका रक्षण वगैरह करने में त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा भी होती हैं। इस तरह परिग्रह पर-द्रव्य प्राण की हिंसा का भी निमित्त बनता है। इसलिए परिग्रह अहिंसक भाव रूप आत्मा के मूल स्वभाव को नष्ट करता है। अत: जो साधक स्वभाव को प्राप्त करना चाहता हो, उसे इन दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करना चाहिए।
1. मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।
- श्रीदशवैकालिक प्राप्त या अप्राप्त कोई भी वस्तु के ऊपर ममत्व-मूर्छा रखना उसे परिग्रह कहा है। 2. दुविहो परिग्गहो विह, थूलो सुहमो य तत्थ परदव्वे।
मुच्छामित्तं सुहुमो थूलो उ धणाइ नवभेओ।।४२३ ।। ___- धर्मसङ्ग्रवृत्ति परिग्रह भी सूक्ष्म एवं स्थूल ऐसे दो प्रकार का है। उसमें परद्रव्य में मूर्छामात्र सूक्ष्म परिग्रह है एवं स्थूल परिग्रह धन-धन्यादि नौ प्रकार का है। (इस विषय की विशेष जानकारी गाथा नं. ३ में दी है।)