________________
वंदित्तु सूत्र
दोनों प्रकार के परिग्रह आत्मा के लिए बंधन रूप हैं। मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करके वे आत्मा को कर्म से बाँधते हैं, इसीलिए महामुनि भी बाह्य एवं अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह से संपूर्ण मुक्त होने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं। वे संयम साधना के लिए अनुपयोगी एक भी वस्तु अपने पास रखते ही नहीं। संयम साधना के लिए आवश्यक ऐसे वस्त्र, पात्र या उपधि वगैरह जो रखते हैं वे भी ज़रूरत से अधिक नहीं रखते। ज़रूरी चीज़ों में कहीं आसक्ति न हो उसकी खूब सावधानी रखते हैं | संयम साधना के लिए स्वीकार किए हुए वस्त्र, पात्र का उपयोग भी वे समभाव की वृद्धि के लिए करते हैं। शरीर की अनुकूलता के लिए कभी भी उनका उपयोग नहीं करते, और इन सबके लिए वे सदा अंतरंग जागृतिपूर्वक आत्म निरीक्षण करते रहते हैं ।
१३८
ऐसा व्रत श्रावक को अत्यंत इष्ट है, परंतु उसमें इतना सत्त्व नहीं होता कि मुनि की तरह बाह्य एवं अभ्यंतर सब प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर सके । अतः ऐसी शक्ति प्रकट करने के लिए वह 'स्थूल परिग्रह का परिमाण' करता है अर्थात् परिग्रह को सीमित करता हैं।
पाँचवे व्रत का स्वरूप :
धन, धान्य आदि नव प्रकार के परिग्रह तथा अन्य कोई भी सामग्री विषयक जो अमर्यादित इच्छा प्रवर्तमान है, उसे मर्यादित करने के लिए उन वस्तुओं को निश्चित मात्रा से अधिक नहीं रखना, वैसी प्रतिज्ञा करना, स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत है ।
श्रावक समझता है कि असंतोष ही दुःख का मूल है । असंतोष के कारण अनावश्यक वस्तुओं को प्राप्त करने का एवं प्राप्त की हुई वस्तुओं का संग्रह करने का मन होता है । जैसे-जैसे संग्रह बढ़ता है वैसे-वैसे उससे संबंधित आरंभ भी बढ़ता जाता है। आरंभ के कारण हिंसा बढ़ती है और हिंसा से कर्मबंध होता है एवं
3. परिग्रहस्य कृत्स्नस्यामितस्य परिवर्जनात् । इच्छापरिमाणकृर्ति, जगदुः पञ्चमं व्रतम् ॥ धर्मसङ्ग्रह सब (नौ प्रकार के) पदार्थों के अपरिमित परिग्रह का त्याग करनेपूर्वक इच्छा को मर्यादित करना, उसको पंचम अणुव्रत कहते हैं ।
-