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________________ सोच कर ही हम चिंतित हो गए। वहाँ तो एक-दो दिन में पता चला कि सा. विनीतप्रज्ञाश्रीजी का भी उनके गुरुवर्या के साथ ही अकस्मात कालधर्म हो गया। एक गुणसंपन्न आत्मा का विरह अंतर की गहराई में कुछ व्यथा कर रहा था। मेरी तरह और भी कितनों को ऐसे प्रतिभासंपन्न साध्वीजी का विरह व्याकूल करता होगा पर कालधर्म के सामने किसी का कुछ नहीं चलता । यह समाचार मिलने के बाद सूत्र-संवेदना की हिन्दी आवृत्ति के बारे में सोचना भी बंद हो गया था। पर मानो कि सा. विनीतप्रज्ञाश्री जी और कहीं से भी इस कार्य करवाने की परोक्ष मदद न कर रहें हों वैसे श्री ज्ञानचंद जैन का एक पत्र और भाषांतर के कई पन्ने मिले। थोड़े दिन बाद वे सूरत मिलने भी आए। प्रौढ़वय में भी एक युवान को शरमाए वैसा उनका यह भाषांतर करने का उत्साह उनका गुरु के प्रति समर्पण भाव प्रदर्शित करता था। मुझे मेरे गुरु का कार्य निष्पन्न करना ही है' ऐसी उनकी लगन के कारण ही आज यह पुस्तक आपके हाथों में है। ऐसे कार्य से वे अनेक लोगों तक प्रभुवचन पहुँचाने में निमित्त बने हैं। उनमें और सब वाचक वर्ग में प्रभुवचन बसे और सबका जीवन उन वचनों के अनुसार व्यतीत हो, जिससे आज नहीं तो कल सब बारह व्रत ग्रहण कर उसके पालन से पंच महाव्रत ग्रहण करने की क्षमता प्रकट कर शीघ्र ही चारित्र का महान आनंद पा सके। सं. २०६५ जेठ वद ७ सा. प्रशमिताश्रीजी
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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