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हिन्दी आवृति की नींव
सूत्र संवेदना - ४ की इस हिन्दी आवृत्ति के पीछे सुविनित ज्ञानानंदी सरलभाषी स्व. सा. विनीतप्रज्ञाश्रीजी के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष योगदान की अनुमोदना सहज हो जाती है। २०६३ के मार्गशीर्ष एवं पौष महीने में पुरुषादानीय श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान की छत्र छाया में उपधान तप की आराधना चल रही थी। जिस में मार्गानुसारी प्रतिभासंपन्न आचार्यदेव श्रीमद् विजय कीर्तियशसूरीश्वरजी महाराजा आगम की वाचना देते हुए ६३ प्रकार के दुर्ध्यान का वर्णन करते थे। सा. विनीतप्रज्ञाश्रीजी भी अन्य साध्वियों के साथ वाचना का श्रवण करने हर रोज आते थे। कई शास्त्रीय पदार्थों का उनसे वाचना के बाद आदान-प्रदान भी होता था। ___ उन्होंने मुझे आत्मीयता से बताया कि सूत्र संवेदना साधना का एक आवश्यक
अंग है। अत: वह सिर्फ गुजराती भाषा के वाचक वर्ग तक सीमित न रहकर हिन्दी भाषी जिज्ञासु साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका के लिए भी उपयोग में आए, इसलिए उसका हिन्दी भाषांतर करना चाहिए। मैंने उन्हें बताया कि मुझे हिन्दी का अनुभव नहीं है, तो उन्होंने तुरंत विनती की कि मुझे इस पुस्तक का भाषान्तर करने का लाभ दीजिए। ऐसे भाषान्तर से अनेक साधकों के लिए साधना मार्ग सरल बनेगा, यह सोचकर मैंने उनकी विनती को सहर्ष स्वीकार किया।
थोड़े ही समय में उनका पत्र भी आया कि भाषांतर का काम शुरू हो चुका है। पर भवितव्यता कुछ और ही थी। एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन किसी ने बताया कि पाली में सा. हेमप्रभाश्रीजी का अकस्मात दुर्घटना में कालधर्म हो गया। हम चौंक उठे, कर्म और आयुष्य के सामने हमारा कुछ नहीं चलता । अनेकों ने एक गुणानुरागी, सरल स्वभावी, विदुषी साध्वीजी भगवंत की कमी महसूस की। यह
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