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विशिष्ट क्षयोपशम युक्त व्यक्ति के लिए लिखने का कार्य सहज होता है। वे तो लेखनी लेकर बैठते हैं और सुन्दर लेख लिख पाते हैं, परंतु क्षयोपशम के अभाव के कारण मेरे लिए यह कार्य सहज नहीं था। अंतर में भावों के झरने तो सतत फूटते रहते हैं, परंतु मेरे भाषाकीय ज्ञान की मर्यादा के कारण इन भावों को शब्दों में ढालने का काम मेरे लिए बड़ा कठिन था। फिर भी जिज्ञासु साध्वीजी भगवंतों की सहायता से एवं भावुक बहनों की निरंतर मांग से यथाशक्ति लिखने का मैंने यत्न किया है।
पहले ही मैं कह चुकी हूँ कि इस पुस्तक में बताए हुए भाव पूर्ण नहीं हैं। गणधर रचित सूत्र के अनंत भावों को समझने की भी मेरी शक्ति नहीं तो लिखने की तो क्या बात करूँ? तो भी शास्त्रों के माध्यम से मैं जितने भावों को जान सकी हूँ, उनमें से कुछ भावों को सरल भाषा में इस पुस्तक में सुबद्ध करने का प्रयत्न किया है। ज्ञान की अपूर्णता एवं अभिव्यक्ति की अनिपुणता के कारण मेरा ये लेखन संपूर्ण क्षतिमुक्त या सबको स्पर्श करे वैसा ही होगा, ऐसा दावा तो मैं नहीं कर सकती। फिर भी इतना तो जरूर कहूँगी कि इसमें प्रस्तुत भावों को हृदयस्थ करके जो भी प्रतिक्रमण करेगा उसका प्रतिक्रमण पहले से बेहतर तो होगा ही।
भगवान की आज्ञा या सूत्रकार के आशय विरूद्ध अगर कुछ लिखा गया हो तो उसके लिए मैं ‘मिच्छामि दुक्कड' कहकर माफी माँगती हूँ। साथ ही अनुभवी बहुश्रुतों से प्रार्थना करती हूँ कि उनकी दृष्टि में जो कोई त्रुटि दिखाई दे तो उनको बिना संकोच मुझे सूचित करें।
अंत में मेरी एक अंतर की भावना व्यक्त करती हूँ कि, हम सब इस पुस्तक के माध्यम से मात्र प्रतिक्रमण के अर्थ की विचारणा करने में ही संतुष्टी का अनुभव न करें, पर उसके द्वारा अनादिकाल से आश्रित पाप वृत्तियों और कुसंस्कारों का नाश कर शीघ्र आत्म कल्याण साधे । भा. सु. १४ सं. २०६२ परम विदुषी प. पू. चन्द्राननाश्रीजी म. सा की ता. ६-८-२००६ शिष्या सा. प्रशमिताश्री ४६, वसंतकुंज सो. अहमदाबाद