________________
८२
वंदित्तु सूत्र
जिज्ञासा : इस सूत्र की तीसरी गाथा में ‘आरंभ' की निन्दा बता दी थी तो फिर पुनः ‘आरंभ' की निन्दा क्यों बताई ?
तृप्ति : पहले जो आरंभ की निन्दा बताई थी, वह अनेक प्रकार के आरंभ की निन्दा बताई थी जब कि यहां अपने जीवन निर्वाह के लिए रसोई क्रिया में जो आरंभ होता है, उसकी निन्दा की गई हैं।
पयणे अ पयावणे अ जे दोसा, अत्तट्ठा य परट्ठा उभयट्ठा चेव - अपने लिए, अन्य के लिए या अपने-पराये दोनों के लिए आहार पकाने की क्रिया करने में या अन्य से करवाने में जो दोष लगा हो ।
श्रावक अपनी भूमिका के अनुसार रसोई करने-करवाने की क्रिया का त्याग नहीं कर सकता, फिर भी उसको रसोई की क्रिया करते समय बहुत जयणा रखनी जरूरी है। जयणा - जैन पारिभाषिक शब्द है। अत्यंत प्रयत्नपूर्वक और अति उपयोगशील होकर जीव बचाने का प्रयत्न करने को जयणा कहते हैं । पानी छानकर ही उपयोग में लेना, लकड़ा, गोबर, कंडे या चूल्हा देखकर, प्रमार्जन करके ही उपयोग में लेना, बर्तन आदि भी देखने, पोंछने, प्रमार्जन करने के बाद ही उनका उपयोग करना। पानी या वनस्पति आदि जरूरत से लेश मात्र भी अधिक उपयोग में न आ जाए उसकी सावधानी रखना। किसी त्रस जीव की हिंसा ना हो इसलिए अनाज वगैरह छानकर, बीनकर, देखने के बाद ही चूल्हे के ऊपर चढ़ाना, ऐसी अनेक प्रकार की जयणा रखना श्रावक का कर्तव्य है। ऐसा होते हुए 3. अर्थ दिपीका में अतट्ठा य परट्ठा य का ऐसा अर्थ भी बताया है :
अतट्ठा - कोई मुग्ध श्रावक स्वयं पुण्य कमाने के हेतु, साधु भगवंत को बोहराने के लिए (रसोई की क्रिया रूप पाप करे)। परट्ठा - दूसरे के लिए अर्थात् माता-पिता आदि अन्य किसी की पुण्य प्राप्ति के हेतु से महात्माओं को बोहराने के लिए (रसोई बनाने का कार्य करके खुद पाप बांधे) एवं 'च' शब्द से साधु के प्रति द्वेष होने के कारण जब कोई साधु का व्रत भंग करवाने के लिए ही रसोई बनाने आदि की क्रिया करे तब... 4. जयणा - यतना - रागद्वेषरहितोऽशठव्यापारः । तदुक्तम्
रागद्दोसविउत्तो जोगो असढस्स होइ जयणा । रागद्दोसाणुगओ, जो जोगो सा अजयणा उ ।।१।। अतः जयणा याने रागद्वेष से रहित निष्कपट व्यवहार ।
- नवपद प्रकरण