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चारित्राचार गाथा-७
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भी प्रमादादि दोषों के कारण उपरोक्त जयणा का पालन न करने से जो निरर्थक हिंसा हुई हो या यतना करते हुए भी अनिवार्य तौर पर जो हिंसा करनी पड़ी हो; इन दोनों कारण से जो पाप लगा हो...
तं निंदे - उसकी मैं निन्दा करता हूँ।
रसोई की क्रिया करते समय हिंसा द्वारा मैंने जिस पाप कर्म का बंध किया है, उसकी मैं निन्दा करता हूँ। जीवों को पीड़ा देने वाला यह कार्य मैंने गलत किया है ऐसा स्वीकार करता हूँ । गृहस्थ जीवन चलाने के लिए रसोई करनी व करवानी अनिवार्य है तो भी यह क्रिया करते समय जो जयणा का भाव सुरक्षित रखना चाहिए, वह मैं नहीं रख सका हूँ। जीवत्व की दृष्टि से मेरे जैसे ही मेरे बन्धुओं को पीड़ा देते हुए हृदय मे जो दुःख होना चाहिए, हृदय कंपना चाहिए, वो भी आहारादि की आसक्ति के कारण नहीं हो सका। सहृदय उस पाप की मैं निन्दा करता हूँ ।
जिज्ञासा : इस गाथा में 'अतिचार' शब्द का उल्लेख न करते हुए 'दोष' शब्द का उल्लेख किया है एवं 'पडिक्कमामि' शब्द का प्रयोग न करते हुए 'निंदे' शब्द का प्रयोग किया है, उसका क्या कारण है ?
तृप्ति : सोचने से ऐसा लगता है कि, व्रत की मलिनता को अतिचार कहते हैं, परंतु श्रावक रसोई न करने का व्रत नहीं स्वीकार सकता, इसलिए रसोई क्रिया में हुई हिंसा से उसे व्रत मालिन्य रूप अतिचार नहीं लगता; फिर भी उसमें अयतना होती हैं। अत: वह दोष रूप है, इसलिए 'अतिचार' की बजाय 'दोष' शब्द का उल्लेख किया होगा एवं प्रतिक्रमण अर्थात् पाप से वापस लौटना, रसोई के विषय में श्रावक के लिए ऐसा प्रतिक्रमण संभव नहीं हैं। इसलिए यहाँ 'पडिक्कमामि' शब्द का उल्लेख न करते हुए 'निंदे' शब्द का प्रयोग किया होगा, ऐसा लगता है।
इस गाथा का उच्चारण करते समय श्रावक सोचता है कि
'वैराग्य मज़बूत करके, सत्त्व का प्रकर्ष करके, आठ वर्ष की उम्र में मैंने संयम जीवन स्वीकार किया होता तो छः काय की हिंसा का यह पाप करने का दिन मेरे जीवन में नहीं आया होता। संयम स्वीकार नहीं किया इसलिए ही हिंसादि यह पाप करने पड़ रहे हैं और ये पाप करते हुए भी करुणादि जो भाव स्थिर रखने चाहिए वो भी मैं नहीं रख सका। वास्तव में मुझे धिक्कार हैं! प्रभु ! कब ऐसा धन्य दिन