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________________ चारित्राचार गाथा-७ ८१ विशेषार्थ : चारित्राचार के अतिचारों की विचारणा करने के पूर्व चारित्र क्या है, उसे देखें संचय किए हुए कर्मों को खाली करना चारित्र है अथवा ज्ञान एवं श्रद्धापूर्वक पाप व्यापारों का त्याग करना चारित्र है अथवा स्व-पर को पीड़ा न हो वैसा जीवन जीना, उसका नाम चारित्र है । - यह चारित्र दो प्रकार का है - सर्वचारित्र एवं देशचारित्र । सर्वसंग के त्यागी साधु-साध्वीजी भगवंतों को सर्वविरति रूप सर्वचारित्र होता है, जब कि सर्वसंग के त्याग की भावना होते हुए भी वैसी शक्ति के अभाव में जो आंशिक पाप व्यापार का त्याग करते हैं, ऐसे श्रावक श्राविकाओं को देशविरति रूप देशचारित्र होता है। देशचारित्र को स्वीकार करने वाले श्रावक-श्राविकाएँ गृहवास में रहते हैं, इसलिए उनको अनिवार्य रूप से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति वगैरह की हिंसा करनी पड़ती है। इस हिंसा संबंधी जो कोई दोष लगा हो, उसकी निन्दा इस गाथा में की गई है। छक्काय-समारंभे - छ: काय जीवों के समारंभ विषयक जो दोष लगा हो। छक्काय समारंभे : छ: काय के जीवों के समारंभ के विषय में । छक्काय अर्थात् पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस जीवों का समूह एवं समारंभ अर्थात् हिंसा । इन छ: काय जीवों की हिंसा, छ: काय समारंभ है। गृहस्थ जीवन जीने वाले श्रावक को संसार चलाने के लिये अनेक प्रवृतियाँ करनी पड़ती हैं। उनमें हिंसादि पाप ज़रूर लगता है, तो भी उन सर्व क्रियाओं में रसोई की क्रिया ऐसी है कि जिसके करने एवं करवाने में सभी प्रकार के जीवों का समारंभ' याने हिंसा होने की संभावना रहती है। इस गाथा में सिर्फ सभारंभ शब्द हिंसा के लिए प्रयोग किया गया है। तो भी तुलादण्डन्याय' से उसके आगे-पीछे रहे हुए संरंभ एवं आरंभ इन दोनों शब्दो का अर्थ भी ग्रहण कर लेना है। 1. संरंभ, समारंभ एवं आरंभ शब्द की व्याख्या के लिए देखिए इस सूत्र की गाथा नं. ३ 2. तुलादंडन्याय याने जिस तरह तराजु को बीच में से उठाने पर उसके दोनों बाजु के पल्लो का ग्रहण हो जाता है वैसे ही यहां संरंभ, समारंभ और आरंभ ऐसे तीन शब्दों में से बीच के समारंभ शब्द का ग्रहण करने से आसपास के संरंभ और आरंभ इन दोनों शब्दों का समावेश हो जाता है।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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