________________
७९
नाणंमि दंसणम्मि सूत्र तप कहते हैं । उसके तीन प्रकार हैं। १. पादपोपगमन २. इंगिनीमरण ३. भक्तपरिज्ञा । सत्त्व हीनता के कारण इस काल के (वर्तमान काल के) जीवों के लिए शास्त्र में इन तीन प्रकार के अनशनों का निषेध किया गया है, परन्तु जब यह तप किया जाता था, तब भी इसे स्वीकारने से पहले आत्मा को श्रुत द्वारा, सत्त्व द्वारा एवं एकत्व भावना द्वारा बहुत भावित करने का विधान था । भावित होते हुए जब लगे कि आहार के बिना भी किसी भी प्रकार के विघ्नों के बीच मन समाधि में रहने के लिए समर्थ बन गया है, तभी इन तपों को स्वीकारने की अनुमति दी जाती थी ।
आहार का सर्वथा त्याग जब तक न हो सके, तब तक थोड़े समय के लिए भी आहार का त्याग करना इत्वरकथिक अनशन तप है । वह भी सर्व से एवं देश से ऐसे दो प्रकार का है । उसमें चारों प्रकार का आहार का त्यागवाला चोविहार उपवास, छ?, अट्ठम वगैरह सर्व से इत्वरकालिक अनशनरूप है एवं एकासणा, बियासणा आदि देश से इत्वरकालिक अनशन कहा जाता है । इत्वर कालिक अनशन नवकारसी के पच्चक्खाण से लेकर छः महिने के उपवास तक 36.(१) पादपोपगमन (२) इंगिनीमरण (३) भक्तपरिज्ञा - १. जीवन के अंतकाल में प्रथम संघयणवाले साधक देवगुरु को वंदन कर उनके पास अनशन
स्वीकार कर, पर्वत की किसी गुफा में आँख की पलक भी हिले नहीं इस प्रकार संपूर्ण तौर से निश्चेष्ट बनकर प्रशस्त ध्यानपूर्वक प्राणांत तक वृक्ष की तरह स्थिर रहते हैं, उस प्रकार
के अनशन को 'पादपोपगमन' अनशन कहते हैं । २. पादपोपगमन अनशन स्वीकार कर सके ऐसा संघयण बल न हो तब किसी निश्चित किये हुए प्रदेश में चार प्रकार के आहार का त्यागकर स्वयं ही उद्वलन (करवटे बदलना) आदि क्रिया करके प्राणांत तक अनशन स्वीकार करने को 'इंगिनी मरण' नाम का अनशन
कहते हैं। ३. गच्छ में रहे हुए साधु कोमल संथारे के उपर, शरीर, उपकरण वगैरह की ममता को त्याग
कर, चार अथवा तीन आहारों का त्याग कर, स्वयं नमस्कार आदि के ध्यान में स्थिर होकर अथवा अन्य से नमस्कार आदि सुनकर मन को आत्म भाव में स्थिर कर, समाधिपूर्वक मरण को स्वीकार करते है उसे 'भक्तपरिज्ञा' नाम का अनशन कहते हैं । इन तीन प्रकार के अनशन की विशेष समझ गुरु समागम से प्राप्त करनी चाहिए ।
- द. वै. हारि० वृत्ति तथा आचारप्रदीप