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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
७७ रहती हैं, आध्यात्मिक चिंतन का सुंदर अवसर मिलता है एवं परिणाम स्वरूप उस तप के समय अपूर्व आनंद का अनुभव होता है । । __ आहारादि संज्ञा को तोड़ने एवं कर्म क्षय के उद्देश्य से जो तप करते हैं, उनको दुर्ध्यान की संभावना नहीं रहती । शरीर के ममत्व को तोड़ने के उद्देश्य से जो तप करते हैं, उनकी धर्म क्रिया में कभी ओट नहीं आती एवं खुद की शक्ति का विचार करके जो तप धर्म का प्रारंभ करते हैं, उनको इन्द्रियों की हानि का प्रश्न नहीं रहता । इस गाथा का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है,
“भगवान के शासन में मात्र भूखा रहने को तपाचार नहीं कहा, परन्तु उत्साहपूर्वक, किसी भी प्रकार के भौतिक सुख की अपेक्षा के बिना, कर्म निर्जरार्थ, आत्म कल्याण के लिए किया हुआ तप ही तपाचार कहलाता है । इसलिए अन्य किसी भी इच्छा से तप हुआ हो तो वह मेरे लिए तपाचार में अतिचार स्वरूप है एवं शक्ति होते हुए भी अगर तपादि में प्रयत्न न किया हो तो वह भी अतिचार है । ऐसे अतिचार को याद करके, प्रतिक्रमण करते समय उसकी माफी मांगकर, उससे
वापिस लौटने का मैं संकल्प करता हूँ ।” अवतरणिका: तप की सामान्य बातें करने के बाद अब बाह्य तप का वर्णन करते हुए कहते
गाथा:
अणसणमूणोअरिआ, वित्ती-संखेवणं रस-चाओ । काय-किलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ।।६।।