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सूत्रसंवेदना - ३
अणाजीवी - आजीविका की या मान सम्मान की इच्छा रखे बिना ।
जीवन जीने के लिए जरूरी बाह्य सामग्री, मान-सम्मान या इहलोकपरलोक के सुख की इच्छा 'आजीविका' है । ऐसी इच्छा के बिना किया हुआ तप 'अनाजीवी' तप कहलाता है । तप करने के बाद, “मैंने यह तप किया है, इसलिए मेरा ऐसा सम्मान होना चाहिए या उत्तम वस्त्र, पात्र से मेरी भक्ति होनी चाहिए, " ऐसी कोई इच्छा - अपेक्षा रखना आजीविका की इच्छारूप है । ऐसी इच्छा से तप किया जाए तो शायद वह वस्तु मिल भी जाए, परन्तु निर्जरारूप महाफल से जीव वंचित रह जाता है । इसलिए तप करते वक्त मान, सम्मान या सत्कार आदि की कोई इच्छा न करते हुए साधक को मात्र ऐसी भावना करनी चाहिए कि इस तप की इस प्रकार
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आराधना करूँ कि मेरे क्लिष्ट कर्म नष्ट हों जाए एवं मेरी आत्मा अधिक निर्मल-निर्मलतर बनकर सर्व सुख की शीघ्र भोक्ता बने । ऐसी भावना से अन्य फल की इच्छा से रहित एवं मात्र निर्जरा की भावना से किया हुआ तप 'अनाजीविक '31 तप कहलाता है ।
'ज्ञानसार' नामक ग्रंथ में महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा ने
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तप की सुंदर व्याख्या की है : "वैसा ही तप करना चाहिए कि जिसमें दुर्ध्यान न हो, जिसके कारण धर्मकार्य में कमी न आए एवं इन्द्रियों की हानि न हो ।"
इस तरीके से भगवान के वचन को सोच-समझकर अगर तप धर्म का यथाशक्ति आदर किया जाए, तो कष्टकारी तप में भी ग्लानि नहीं होती, बल्कि चित्त की प्रसन्नता बनी रहती है, मन को शांति मिलती है, इन्द्रियाँ अंकुश में
- द. वै. हारिभद्रीय वृत्ति
31. अनाजीविको - निःस्पृहः फलान्तरमधिकृत्य । 32. तदेव हि तप:कार्यं, दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् ।
येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ।। तंतु तो काळं जेण जिओऽमंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा ण हायंति ॥
ज्ञानसार
यतिदिन चर्या-२३