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________________ ७४ सूत्रसंवेदना - ३ 28 प्रायश्चित्तादि छः प्रकार के आभ्यंतर तप हैं । ये तप सामान्य तरीके से तप के नाम से प्रसिद्ध नहीं हैं । इसे करनेवाले को बाह्य दृष्टि से कोई तपस्वी नहीं कहता । इस तप से शरीर कृश हो जाए यह जरूरी नहीं । जैनशासन को विशेष प्रकार से समझे हुए विवेकी आत्मा यह तप कर सकते हैं । यह तप अंतरंग तौर से कार्मण शरीर को तपाता है एवं निर्जरारूप फल देनेवाला है, इसलिए उसे आभ्यंतर तप कहते हैं । अगिलाइ अणाजीवी नायव्वो सो तवायारो - (इन बारह प्रकार के तप में) ग्लानि रहित एवं आजीविका की इच्छा के बिना किया हुआ आचरण तपाचार है। इन बारह प्रकार के तपों में कुछ तप ऐसे हैं, जिनका आचरण शरीर को ठीक रखने के लिए भी किया जाता है, या मान-सन्मान आदि की इच्छा से भी कई बार तप किया जाता है; परन्तु इस प्रकार किए हुए तप के आचरण को तपाचार नहीं कहते । तपाचार तो उसे कहते हैं, जो अपनी शक्ति का विचार कर, अन्य किसी भी धर्मकार्य में कमी न आए और मन में कोई खराब भाव न उत्पन्न हो उस तरह मात्र कर्मनिर्जरा के हेतु से किया जाता हो । 29 अगिलाइ - ग्लानि बिना, चित्त की प्रसन्नतापूर्वक । थकान, ऊब, अनुत्साह या नाराजगी जैसी किसी शारीरिक या मानसिक शिथिलता के भाव को ग्लानि कहते हैं । ऐसी ग्लानि के बिना, चित्त की प्रसन्नता से, उत्साह एवं आनंद से जो तप किया जाता है, उसे अग्लान तप कहते हैं । स्वशक्ति का विचार करके तप धर्म का प्रारंभ करने के बाद कभी भूखप्यास आदि की वेदना बढ़ जाए तब भी अग्लान तप करने की भावनावाले साधक को मुरझाया हुआ मुख नहीं बनाना चाहिए । अपने मुख को म्लान होने 28. आभ्यन्तरं चर्मदृगदृश्यं, निर्जराफदं, कार्मणशरीरदाहकं, जैनशासने सम्यग्दृल्लिभिरेव शांत सुधारस टीका - सिद्धचक्र महापूजन क्रियमाणत्वादन्तरंगं तपः । 29.केवनिर्जरारूपाय श्री सम्यक् तपसे नमः स्वाहा ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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