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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र जो अंतरंग यत्न होता है, वह अंतरंग तप है एवं जो बाह्य प्रयत्न होता है, वह बाह्य तप है ।
संक्षेप में इच्छाओं को रोककर, संवर भाव को प्राप्त करके, समता योग को साधकर आत्मगुण में रहना, आत्मभाव में रमण करना, निश्चय से तप नाम का गुण है । इस गुण को प्राप्त करने के लिए जो आचरण किया जाता है, उसे तपाचार कहते हैं ।
बारसविहम्मि वि तवे, सभिंतर-बाहिरे कुसल-दिट्टे - कुशल पुरुषों द्वारा बताए हुए बारह प्रकार के अभ्यंतर एवं बाह्य तप में, (हुई प्रवृत्ति तपाचार है ।)
अनादिकाल से आहार संज्ञा के अधीन बनकर, मन एवं इन्द्रियों के वश में होकर जीव ने अनंत कर्म बांधे हैं । बंधे हुए कर्मों से मुक्त होने के लिए कुशल दृष्टिवाले सर्वज्ञ भगवंतों ने तप धर्म बताया है।
रसादि धातुएँ तथा कर्म जिसके द्वारा तपे, उसे तप कहते हैं अथवा जिससे इच्छाओं का निरोध हो, समता का प्रादुर्भाव हो एवं आत्म भाव में आनन्द हो, उसे तप कहते हैं । यह तप दो प्रकार का है : (१) बाह्य तप एवं (२) आभ्यंतर तप । उसमें अनशन आदि छ: प्रकार का बाह्य तप है । इस तप को बाह्य दृष्टि से देख सकते हैं । इस तप को करनेवाले को लोग तपस्वी कहकर आदर देते हैं । इसके अलावा यह तप बाह्य शरीर आदि को शोषण करने का कार्य करता है, इसलिए इसे बाह्य तप कहते हैं । 24. कुशलेन दिष्टमिति कुशलदिष्टं तस्मिन् - कुशल ऐसे जिनेश्वर देव द्वारा उपदिष्ट बारह प्रकार का तप 25. तप्यतेऽनेन देहकर्मादीति तपः,
रस-रुधिर-मांस-मेदोऽस्थि-मज़ा-शुक्राण्यनेन ताप्यन्ते । __कर्माणि चाशुभानीत्यतस्तपो नाम नैरुक्तम् ।।१।।
- आचार प्रदीप 26. इच्छारोधे संवरी, परिणति समता योगे रे, ____तप ते एहीं ज आतमा, वर्ते निज गुण भोगे रे। - उ. यशोविजयजी कृत नवपद की पूजा 27. मिथ्यादृल्लिभिरपि क्रियमाणत्वेन, क्रियमाणं चर्मचक्षुदृश्यमाणत्वेन बाह्यमौदारिकशरीरशोषकत्वेन च बहिर्भवं तपः ।
- शांत सुधारस टीका