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________________ ७२ सूत्रसंवेदना - ३ अवतरणिका : अब चारित्राचार के वर्णन के बाद तपाचार का वर्णन करते हैं गाथा : - बारसविहम्मि वि तवे, सब्भिंतर - बाहिरे कुसल - दिट्ठे । अगिलाइ अणाजीवी नायव्वो सो तवायारो ॥५॥ अन्वय सहित संस्कृत छाया : कुशलदिष्टे, साभ्यन्तर- बाह्ये, द्वादश-विधे अपि तपसि । अग्लान्या अनाजीविकः (यो आचारः) स तपाचारः ज्ञातव्यः ।।५।। गाथार्थ : कुशल पुरुषों द्वारा अर्थात् जिनेश्वरों द्वारा उपदिष्ट अभ्यंतर एवं बाह्य भेवाले बारह प्रकार के तप में ग्लानि के बिना एवं आजीविका की इच्छा के बिना किया हुआ आचार तपाचार जानना । विशेषार्थ : सर्व दुःख की मूल इच्छाएँ हैं एवं इच्छाओं का सर्वथा अभाव परम सुख है। प.पू. हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा ने पंचसूत्र में तो अनिच्छा को ही मोक्ष कहा I है । निरंतर सक्रिय इच्छाओं को रोकने के लिए जो अंतरंग प्रयत्न किया जाता है, उसे अभ्यंतर तप कहते हैं एवं आहार त्यागादि रूप जो बाह्य प्रयत्न किया जाता है, उसे बाह्य तप कहते हैं । दूसरे तरीके से सोचें तो कर्म के संबंध के कारण जीव संसार में सतत परिभ्रमण करते रहते हैं, इन कर्मों को आने से रोकना संवर है एवं आए हुए कर्मों को दूर करना निर्जरा है । इस संवर और निर्जरा का परिणाम आंतरिक तप है एवं उनके लिए किया गया बाह्य आचरण बाह्य तप है । इसके अतिरिक्त राग एवं द्वेष के द्वंद्व जीव को सतत परेशान करते हैं । इन रागादि भावों से अलग होकर समता के भावों में जीव को स्थापित करने हेतु
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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