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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
७१ ६-७-८. मन-वचन काया को अशुभ भाव में जाने से रोककर, शुभ भाव में स्थापित करना अथवा सर्वथा उनको कहीं जाने न देना, मन-वचन-काया की गुप्ति है । __ ये पाँच समिति एवं तीन गुप्ति साधुओं के चारित्ररूपी शरीर को माता के समान जन्म देकर पालन करनेवाली होने से और उनकी अशुद्धियों को दूर करके उनको स्वच्छ-निर्मल रखनेवाली होने से, शास्त्रों में उनको अष्ट प्रवचन-माता के रूप में बताया गया है ।
सर्वविरतिधर आत्माओं को तो प्रतिक्षण इन आठ प्रवचन माताओं का पालन करना होता है । उसके द्वारा ही उनका चारित्र जीवंत रहता है । देशविरतिवाले श्रावकों को इन अष्ट प्रवचन माता का पालन मुख्य रूप से सामायिक एवं पौषध में करना है । उसके सिवाय भी श्रावक को अपनी सर्वप्रवृत्ति में जयणा को प्रधानता देनी है । निरर्थक हिंसादि पाप न हो जाए उसका खास खयाल रखना है । ऐसी प्रवृत्ति से ही देशविरति का परिणाम वृद्धिमान होता है एवं अंत में सर्वविरति के लिए वह जीव सक्षम बन सकता है । इस गाथा को बोलते हुए साधक सोचता है,
"भगवान के शासन का संयम एवं उसकी प्राप्ति का मार्ग कितना सुंदर है ! मन को एकाग्र करके समिति-गुप्ति रुप इन आचारों का पालन करूँ, तो मोक्ष का आंशिक सुख आज यहीं पा सकूँ । तो भी विषय कक्षाय की ये पराधीनता कैसी है ? नहीं तो सुविशुद्ध भाव से संयम का स्वीकार होता है और न तो चारित्र के आचारों का यथायोग्य पालन होता । अब दृढ़ संकल्प करके एकाग्रतापूर्वक समिति गुप्ति का पालन करके मैं संयम गुण को प्रगट करूं एवं यहीं आत्मानंद का अनुभव करूँ।' एताश्चारित्रगात्रस्य, जननात् परिपालनात् । संशोधनाञ्च साधूनां, मातरोऽष्टौ प्रकीर्तिता ।।
- योगशास्त्र - ४६ समिति-गुप्ति की विशेष समझ के लिए सूत्र संवेदना भाग १ में पंचिदिय सूत्र देखें ।