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________________ सूत्रसंवेदना - ३ है । इसलिए रागादि को अल्प करने के लिए रागादि के विपाक कैसे हैं, यह गुरु भगवंत से विनयपूर्वक समझने चाहिए । समझने के बाद संसार में रागादि के बंधन में फँसे हुए जीवों का जो बुरा हाल होता है, प्रिय पात्र की उपस्थिति में उनकी उत्सुकता तथा व्याकुलता एवं अनुपस्थिति में उनकी जो शोकातुर एवं उदासीन मनःस्थिति होती है, उसके बारे में सोचना चाहिए । रागादि के अधीन बन कर बांधे हुए कर्मों के कारण जीवों को भवांतर में भी कैसी कैसी पीड़ाएँ सहन करनी पड़ती हैं, उसका शास्त्रवचनानुसार चिंतन करना चाहिए; इस तरह रागादि की प्रतिपक्षी भावनाओं द्वारा मन को भावित करके, रागादि एक एक कषाय को पहचानकर एवं उससे दूर रहने के लिए मन को पहले से ही तैयार करना चाहिए, तभी निर्बल निमित्तों के बीच भी चित्त स्वस्थ रह सकता है । ७० चित्त की स्वस्थतापूर्वक समिति - गुप्ति के पालनरूप जो चारित्राचार है, उस में समिति का अर्थ है सम्यग् प्रकार की प्रवृत्ति एवं गुप्ति का अर्थ है निवृत्ति । के १. किसी भी जीव को मुझ से पीडा न हो जाए ऐसे परिणामपूर्वक, बैलगाडी धुरा प्रमाण अर्थात् ३'/, हाथ भूमि को देखकर, अचित्त भूमि के उपर चलना ईर्या समिति है । २. मेरी वाणी से किसी को पीड़ा न हो ऐसे भावपूर्वक सोचकर हित, मित एवं प्रिय बोलना भाषा समिति है । ३. संयमजीवन के लिए उपयोगी आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, वसति आदि निर्दोष (४२ दोष रहित) ग्रहण करने की क्रिया एषणा समिति है । ४. किसी भी जीव को किलामणा (पीड़ा) दुःख न हो इस प्रकार की दृष्टि से देखकर, रजोहरण वगैरह से पूंजकर ( हलके से झाडकर) संयमजीवन में उपयोगी चीजों को लेने (रखने) की क्रिया आदानभण्डमत्तनिक्खेवणा समिति है । ५. संयम जीवन के लिए अनावश्यक चीजों को शुद्ध, निर्दोष भूमि में वोसिराने = त्यागने की क्रिया को पारिष्ठापनिका समिति कहते हैं ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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