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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र दोनों प्रकार के चारित्र के पालन, पोषण एवं संवर्धन के लिए प्रणिधान से युक्त याने कि मन की स्वस्थतापूर्वक पाँच समिति एवं तीन गुप्ति से युक्त किया हुआ व्यापार आठ प्रकार का चारित्राचार है । चारित्र आत्मभाव में स्थिर होनेरूप या आत्मानंद की प्राप्तिरूप है । चित्त की स्वस्थता के या मन की एकाग्रता के बिना आत्मभाव में स्थिर होना सम्भव नहीं है । आत्मभाव में स्थिर हुए बिना आत्मा के आनंद की अनुभूति नहीं होती । इसलिए प्रणिधान योग से युक्त=चित्त की स्वस्थता से युक्त समिति गुप्ति की प्रवृत्ति को ही चारित्राचार कहते है ।
चारित्राचार की इस व्याख्या के अनुसार निश्चित होता है कि, चारित्र मात्र क्रियारूप नहीं, परन्तु समिति गुप्ति की हर एक क्रिया के माध्यम से आत्मा में स्थिर होकर, आत्मा के आनंद का अनुभव करने रूप है । संयमजीवन की कोई भी क्रिया हो, चाहे वह चलने की हो या बोलने की, आहार ग्रहण की क्रिया हो या मलविसर्जन की, संयमजीवन में उपयोगी वस्त्र-पात्र लेने-रखने की क्रिया हो - ये सब क्रियाएँ आत्मभाव में स्थिर होने के लिए हैं । इस लिए संयम जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति को मन की चंचलता दूर करके चित्त की स्वस्थता से करनी अत्यंत जरूरी है । इस तरीके से करने से ही यह प्रवृत्ति चारित्राचाररूप बनती है । मन की चंचलता को दूर किये बिना की हुई काया की प्रवृत्तियाँ एक तरह की कवायत बनती है, उससे थोडे पुण्य का बंध होता है, परन्तु विशिष्ट कर्म निर्जरा या आत्मिक आनंद तक नहीं पहुंचा जा सकता । जिज्ञासा : चित्त की स्वस्थतापूर्वक की हुई प्रवृत्ति ही चारित्राचार कहलाती है, यह सत्य है, परन्तु चित्त स्वस्थ करने के लिए क्या करना चाहिए ? तृप्ति : मन की चंचलता का मुख्य कारण वैषयिक तथा काषायिक वृत्तियाँ एवं वस्तु या व्यक्ति के प्रति रागादि अशुभ भाव हैं । ऐसी वृत्तियाँ नियंत्रण में आएँ एवं इन रागादि भावों की अल्पता हो, तो मन स्वस्थ रह सकता 22. प्रणिधानं-चेतःस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा: व्यापारास्तैर्युक्तः समन्वितः प्रणिधानयोगयुक्तः ।
- द. वै. हारिभद्रीय वृत्ति