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सूत्रसंवेदना-३
अवतरणिका:
दर्शनाचार के बाद अब क्रम से आने वाले चारित्राचार को बताते हैं : गाथा: पणिहाण-जोग-जुत्तो, पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होइ नायव्यो ।।४।। अन्वय सहित संस्कृत छाया: पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु प्रणिधान-योग-युक्तः । एष अष्टविधः चारित्राचारः ज्ञातव्यो भवति ।।४।। गाथार्थ :
पाँच समिति एवं तीन गुप्ति संबंधी प्रणिधान योग से युक्त अर्थात् मन की स्वस्थतापूर्वक का यह चारित्राचार आठ प्रकार का जानना । विशेषार्थ :
आत्म भाव में स्थिर होना चारित्र है अथवा एकत्रित किए हुए कर्मों को खाली करना, अथवा भगवान के वचन द्वारा मोक्षमार्ग को समझकर, उसमें अडिग श्रद्धा पैदा करके, उस मार्ग पर चलना चारित्र' है । यह चारित्र देशचारित्र एवं सर्व चारित्र के भेद से दो प्रकार का है । उनमें सर्वचारित्र हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों का सर्वथा त्यागरूप पाँच महाव्रतों का पालन है, जब कि देशचारित्र हिंसादि पापों का अंश से त्यागरूप अणुव्रतादि का पालन है । इन
19. यह गाथा दशवैकालिक सूत्र की श्री भद्रबाहुस्वामी रचित नियुक्ति की गाथा-१८५ है । हरिभद्रीय वृत्ति में उसकी छाया दो तरीके से की गई है : एक जिस तरीके से उपर की गई है वैसी एवं दूसरी इस तरीके से : पञ्चभिः समितिभिस्तिसृभिश्च गुप्तिभिः प्रणिधानयोगयुक्तः
पाँच समिति एवं तीन गुप्ति द्वारा प्रणिधान योग से युक्त व्यापार वह चारित्राचार है । 20. चारित्रं स्थिरतारूपम् - 21. 'चा (चय)' - एकत्रित किया हुआ 'रिक्त' खाली करना । संचित कर्म को खाली करने की
क्रिया चारित्र है।