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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
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करवाने से धर्मप्राप्ति में बाधक बननेवाले अपने कर्म नाश होते हैं एवं धर्म सुलभ बनता है । शक्ति होते हुए भी कृपणता आदि दोषों के कारण जो शासन की प्रभावना के लिए यत्न नहीं करते, वे दर्शनाचार की आराधना से हैं ।
आठ प्रकार के दर्शनाचार का जो पालन करता है, उसके मिथ्यात्व मोहनीय कर्मों का नाश होता है, उसे निर्मल सम्यग्दर्शन नामक गुण की प्राप्ति होती है तथा प्राप्त हुआ यह गुण विशेष शुद्ध बनता है ।
इन आठ आचारों में प्रथम चार आचार खुद के सम्यग्दर्शन की दृढ़ता के लिए है एवं बाद के चार आचार अन्य को गुण प्राप्ति एवं दृढ़ता दिलाने के लिए है । प्रथम चार आचारों का यथायोग्य पालन करने के लिए जैसे विचारशीलता चाहिए, वैसे बाद के चार आचारों के पालन करने के लिए विचारशीलता के साथ विशिष्ट शक्ति एवं उदारता आदि गुण होना जरुरी है ।
इस गाथा का उच्चारण करते हुए सोचना चाहिए,
“ सच में सम्यग्दर्शन नहीं होने के कारण ही मैं अनादिकाल से इस संसार में भटक रहा हूँ । सम्यग्दर्शन तो मुझ में नहीं है, परन्तु उसे प्राप्त करवानेवाले आचार भी मुझ में नहीं हैं । सुंदर मन पाया है, उसमें पूरी दुनिया के बारे में मैं सोचता हूँ, परन्तु आत्मादि तत्त्व के बारे में सोचता ही नहीं तो निःशंकादि आचार का पालन कैसे होगा । शायद इस भव में मैं विशेष ज्ञान न पा सकूँ, शायद विशेष चारित्र का पालन भी न कर सकूँ, परन्तु प्रभु ! मुझ में आप के वचनों के प्रति आदर प्रकट हो, उसमें अडिग विश्वास आए, कभी मेरा मन शंका, कांक्षा में अटक न जाए, जिससे स्वयं तो श्रद्धा संपन्न बनूँ एवं अन्य को भी दृढ़ श्रद्धावान बनाने का प्रयत्न करूँ, इतना आप से मांगता हूँ ।"