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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
६५ अपने पुत्र के प्रति जैसा भाव होता है वैसा ही भाव किसी के प्रति हो तो उस भाव को वात्सल्य कहते है । यह प्रेम का वाचक है। माता-पिता को अपनी संतान के प्रति किसी स्वार्थ या अपेक्षा के बिना का जो सहज प्रेम या स्नेह का भाव होता है, उस भाव को 'वात्सल्य'' कहते हैं । वात्सल्य के कारण ही माता-पिता अपने विकलांग बच्चों की भी देख-भाल करते हैं, उनका लालनपालन करते है एवं उनकी सभी आवश्यकताएँ पूरी करते हैं । उसी तरह गुणवान् या गुणहीन कक्षा का साधर्मिक हो, तो भी उस के प्रति सहज प्रेम, स्वाभाविक स्नेह रखने की प्रवृत्ति एवं उस स्नेह के कारण उत्तम वस्त्र, पात्र, अन्न, पानी वगैरह से की हुई उसकी भक्ति, सद्भावपूर्वक की हुई उसकी देखभाल एवं उसकी सब जरूरते पूरी करने की भावना ‘साधर्मिक वात्सल्य' नाम का सातवाँ दर्शनाचार है।
इसके बदले स्वार्थ से, किसी प्रकार की अपेक्षा से या विकृत स्नेह या प्रेम से साधर्मिक भक्ति की जाएँ अथवा 'इस बिचारे का हम नहीं करेंगे, तो कौन करेगा ?' ऐसी दया की भावना से, विवेक या, बहुमान बिना, असभ्यता से उसको कुछ भी दिया जाय, तो वह दर्शनाचार का अतिचार है । जिज्ञासा : साधर्मिक यदि गुणवान् हो तो उसकी भक्ति करने की भावना सहज हो सकती है, परन्तु जिसमें दोष प्रत्यक्ष दीखते हों, उसकी भक्ति करने का भाव तो कैसे हो सकता है ? तृप्ति : जहाँ दोष दीखते हैं वहाँ भक्ति का उत्साह नहीं होता, यह बात सत्य है, लेकिन जिन्हें साधर्मिक वात्सल्य आदि आचारों का पालन करना है, वे सामनेवाले व्यक्ति के दोषों को नहीं देखते और दिख भी जाएँ तो उनको महत्त्व नहीं देते, क्योंकि वे समझते हैं कि जिसके साथ धर्म करना है, वैसे साधर्मिक हमेशा छद्मस्थ अवस्थावाले होते हैं । यह अवस्था ही
17. वात्सल्यं समानधार्मिकप्रीत्युपकारकरणम् । - द. वै. सूत्र की हारिभद्रीयवृत्ति 'वत्सः एव वत्सलः तस्य भाव इव भावः यस्मिंस्तत् वात्सल्यम् ।' 'वत्सः' शब्द में स्वार्थक 'ल' लगा है । पुत्र वाचक वत्सल शब्द में भाव का आधान करने 'य' प्रत्यय लगाया है ।