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________________ सूत्रसंवेदना - ३ 1 प्रशंसा के विषय में इतना खास ध्यान रखना कि; प्रशंसा किसी की भी, कहीं पर भी, किसी भी तरीके से नहीं करनी है । योग्य आत्मा की, योग्य स्थान में एवं योग्य तरीके से, स्व- पर सब का हित हो उस तरीके से निःस्वार्थ भाव से करनी है । सामनेवाले व्यक्ति को खुश रखने या खुश करके अपना स्वार्थ साधने के लिए यदि प्रशंसा की जाए या विवेक के बिना कही भी जैसे-तैसे प्रशंसा की जाए तो वह प्रशंसा 'उपबृंहणा' नामक दर्शनाचार न रहकर उसका अतिचार या दोष बन जाता है । उसी प्रकार योग्य आत्मा की योग्य स्थान पर विवेकपूर्ण प्रशंसा नहीं करना वह भी दर्शनाचार का अतिचार है । ६४ ६. थिरीकरणे - धर्म में कमजोर बनी हुई आत्माओं को धर्म में स्थिर करना छट्ठे 'स्थिरीकरण' नाम का दर्शनाचार है । सभी सुखों के स्थानभूत जैनधर्म को प्राप्त करने के बाद कोई जीव नाराज़ दिखे, धर्म में प्रमाद करता दिखे, तो तन से उसकी सेवा-शुश्रूषा करें, वाणी से वह धर्म मार्ग में स्थिर हो ऐसे शब्द कहें, मन से अपनी समझ एवं बुद्धि का उपयोग करके एवं धन से भी सहायता करके उसे धर्म मार्ग में स्थिर करना 'स्थिरीकरण' नाम का दर्शनाचार है । अन्य को धर्ममार्ग में स्थिर करने से अन्य साधक को भी उत्तरोत्तर धर्म मार्ग में आगे बढ़ाकर आखिर मोक्ष तक पहुँचाने में सहायक बना जा सकता है एवं खुद को भी पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध होता है । बहुमती शक्ति होते हुए भी और अनुकूल संयोग होने पर लोभ से, प्रमाद से, उपेक्षा से या अविचारकता से अन्य को धर्म में स्थिर करने का जो प्रयत्न नहीं करता वह दर्शनाचार की आराधना से चूक जाता है । ७. वच्छल्ल - गुणवान् आत्मा के प्रति स्नेह, झुकाव या प्रेम 'वात्सल्य' नाम का सातवां दर्शनाचार है । 16. स्थिरीकरणं तु धर्माद्विषीदतां सतां तत्रैव स्थापनम् । - द. वै सूत्र की हारिभद्रीय वृत्ति
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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