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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र ही जाता है । इस तरह उछलते हृदय से गुणवान् के गुणों की प्रशंसा करके उसके धर्म को, धर्म की भावना को बढाना 'उपबृंहणा' नाम का पाँचवाँ दर्शनाचार है ।
अनादिकाल से जीव ने गुण की उपेक्षा कर दोषों का ही पक्ष लिया है । . गुणवान् भी खुद को अनुकूल हो या अपने काम में आता हो, तो ही उसको सही मानकर (स्वार्थ के लिए) उसकी प्रशंसा की है, अपनी प्रसिद्धि में या मानसम्मान एवं इच्छापूर्ति में बाधा रूप गुणवान् की ईर्ष्या, चुगली एवं निंदा करना जीव ने कभी छोड़ा नहीं । फलतः जीव गुणों से वंचित रहा है एवं दोषों से पुष्ट हुआ है ।
गुणवान् के गुणों की प्रशंसा करना यह गुणों की प्राप्ति एवं दोषों को टालने का परम उपाय है; क्योंकि गुणवान् के गुणों को गाने से गुणों के प्रति आदर बढ़ता है एवं दोषों के प्रति पक्षपात मंद मंदतर होता जाता है । इसके अलावा अनादिकालीन दोष देखने एवं बोलने की खराब आदत टलती है, एवं गुण देखने एवं गुण बोलने की अच्छी आदत पडती है । कहते हैं कि "उत्तम ना गुण गावतां गुण आवे निज अंग ।" उत्तम पुरुषों के गुण गाते गाते खुद को वे गुण प्राप्त होते हैं ।
विवेकपूर्वक की हुई प्रशंसा के दो बोल सुनकर योग्य एवं विवेकी आत्मा आनंदित होती है एवं उत्साहपूर्वक अपने सद्गुणों की वृद्धि के लिए प्रयत्न करने लगती है । गुण प्रशंसा का सब से बड़ा फायदा यह है । इसके अतिरिक्त, गुण प्राप्ति में विघ्न करनेवाले कर्म नाश होते हैं एवं गुणप्राप्ति के अनुकूल पुण्यकर्मो का बंध होता है । इसलिए सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त किए हुए एवं प्राप्त करने की इच्छावाले साधक को उपबृंहणारूप दर्शनाचार का अवश्य पालन करना चाहिए । 15.उपबृंहणा शब्द बृह् घातु से बना है । बृह धातु का अर्थ पोषण एवं परिवर्धन होता है अथवा
उपबृंहणा शब्द का अर्थ प्रशंसा होता है । उपबृंहणं नाम समानधर्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणम् ।
- हितोपदेश