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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र अतिरिक्त कभी मलिन देहवाले मुनियों को देखकर भगवान ने ऐसा आचार क्यों बताया होगा ?' ऐसा विकल्प भी उठता है । वह भी दर्शनाचार का 'वितिगिच्छा' नाम का अतिचार ही है ।
भगवान की आज्ञानुसार जीवन जीते हुए, शरीर एवं वस्त्रादि के प्रति निःस्पृह रहनेवाले मुनि को देखकर उनके प्रति एवं वैसा आचार बतानेवाले सर्वज्ञ वीतराग भगवंत के प्रति अहोभाव या आदरभाव रखना, जुगुप्सा नहीं करनी 'निर्विजुगुप्सा' नामक दर्शनाचार का तीसरा आचार है ।
४. अमूढदिट्ठी अ - मूढ़ता रहित बुद्धि रखना या विवेकपूर्वक विचार करना अमूढदृष्टि नाम का चौथा दर्शनाचार है ।
जो मनुष्य सही-गलत का विचार किए बिना मात्र आचरण करता है उसे इस जगत् में मूढ या गँवार कहते हैं । जो सार-असार का विचार करके प्रवृत्ति करता है उसे अमूढ, बुद्धिशाली या चतुर कहते हैं । इसी तरह धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद जो साधक कौन सा धर्म सत्य है, कौन से गुरु मेरी आत्मा का हित कर सकते हैं एवं कौन से देव सर्व दोष रहित कहलाते हैं, उस संदर्भ में कुछ भी सोचते नहीं एवं मात्र कुल परंपरा से या गतानुगतिक तरीके से धर्म करते है, उनको इस क्षेत्र में मूढ़ कहते हैं । जो अपनी बुद्धि के अनुसार विचारकर विवेकपूर्वक प्रत्येक वस्तु को स्वीकार करते है एवं स्वीकार के बाद अपनी समझ एवं शक्ति का उस प्रकार से उपयोग करते हैं, उन्हें इस क्षेत्र में अमूढ दृष्टिवाले" कहते हैं । ऐसे जीवों के धार्मिक क्षेत्र में हुए आचरण को 'अमूढदृष्टि' नामक चौथा दर्शनाचार कहते हैं ।
अध्यात्मिक क्षेत्र में जीव अनादिकाल से मूढ़ रहा है । इसलिए भौतिक क्षेत्र में महाबुद्धिशाली, सोच-सोच कर कदम रखनेवाला मनुष्य भी अपनी आत्मा का हित किससे होगा ? सच्चा सुख किस तरीके से मिलेगा ? इस विषय पर विचार ही नहीं कर सकता । ऐसे जीव कभी धर्म मार्ग मे जुड़ते हैं तो भी वे कौन
14. न मूढा - स्वरूपान्न चलिता दृष्टिः सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावमूढदृष्टिः ।
- हितोपदेश