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सूत्रसंवेदना - ३
फलों की जिन्हें आकांक्षा रहती है, वैसे जीवों को ऐसा भ्रम होने की संभावना है कि, धर्म के मार्ग पर चल तो रहे हैं; परन्तु कोई फल क्यों नहीं मिलता ? इसका कोई फल होगा कि नहीं ? धर्म के फल के विषय में ऐसा संदेह होने के कारण उन जीवों का धर्म मार्ग में चलने का उत्साह मंद पड जाता है। इसलिए इस संदेह को दर्शनाचार का 'विचिकित्सा' नाम का अतिचार कहते हैं ।
ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए सोचना चाहिए कि " यह धर्म सर्वज्ञ वीतराग भगवंत का बताया हुआ है । यथायोग्य तरीके से उसका पालन करने से सुखरूप फल अवश्यमेव मिलता है एवं तत्काल फल नहीं दीखता उसमें धर्म की कमजोरी नहीं, मेरी करनी की कमी है । धर्म की शक्ति तो अचिंत्य है, परन्तु फल की प्राप्ति मेरी करनी के अनुसार होती है । अगर शास्त्र की आज्ञा के अनुसार धर्म करूँ, तो जरूर अनंत सुखरूप फल मैं पा सकता हूँ ।" ऐसा विचार दर्शनाचार का 'निर्विचिकित्सा' नाम का तीसरा आचार है ।
‘निव्वितिगिच्छा’ - का दूसरा अर्थ है निर्विजुगुप्सा अर्थात् साधु साध्वी के मलिन वस्त्र देखकर जुगुप्सा नहीं करना, नाक नहीं सिकोड़ना, दुर्गंध के कारण दूर नहीं रहना इत्यादि ।
वस्त्र की मलिनता या वस्त्र की चमक, ये दोनों पौद्गलिक भाव हैं । अनादिकाल के अविवेक के कारण संसारी जीव अच्छे, सुगंध युक्त वस्त्र देखकर राग एवं खराब या दुर्गंध भरे हुए वस्त्रों को देखकर द्वेष करते हैं । मुनि जानते हैं कि ये तो पौद्गलिक भाव हैं । अच्छे पुद्गलों में राग एवं खराब में द्वेष करना मेरे लिए उचित नहीं है । इसलिए मुनि रागादि भावों से दूर होने के लिए अपने देह एवं वस्त्रादि की उपेक्षा करते हैं । उनके उपर लगे हुए पसीने आदि को भी वे निभा लेते हैं ।
मैल या
शरीर की ममता को तोड़ने ऐसा उत्तम प्रयत्न कर रहे मुनियों के मैले वस्त्र या देह को देखकर उनके प्रति जुगुप्सा करना, नफरत करना, उनसे दूर भागना या नाक सिकोड़ना 'विचिकित्सा' नामका दर्शनाचार का अतिचार है । इसके