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________________ नाणंमि दंसणम्मि सूत्र ५९ धर्म को देखकर मुग्ध जीव उस तरफ मुड़ जाते हैं । इसके अलावा भौतिक सुख के रसिक जीव, जहाँ भी भौतिक कामनाएँ पूरी होती दिखाई देती हों वहाँ दौड़े चले जाते हैं एवं धन, संपत्ति, पुत्र-परिवार के लिए किसी भी देव के पास जाते हैं एवं आत्मा के लिए महाअनर्थकारी धर्म को भी स्वीकार लेते हैं, ऐसे जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सकते एवं प्राप्त किया हों तो भी टिका नहीं सकते । इसके अलावा वे प्राप्त सम्यग्दर्शन को गँवाकर भविष्य में भी उसकी प्राप्ति दुर्लभ बनाते हैं । इसलिए अन्य दर्शन की इच्छा को दर्शनाचार विषयक 'कांक्षा' नामक अतिचार कहते हैं । सम्यग्दर्शन पाने के लिए या पाए हुए को टिकाने के लिए वीतराग के सिवाय किसी की भी तार्किक बातें सुनकर या चमत्कार देखकर उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए या सानुकूल धर्म की तरफ झुकना भी नहीं चाहिए, ऐसी दृढ मनोवृत्ति रखना, यही इस निकंखिअ नामक आचार का पालन है । ३. निव्वितिगिच्छा मतिविभ्रम न करना अर्थात् बुद्धि स्थिर रखना अथवा साधु साध्वी के मलिन वस्त्रों के प्रति घृणा या जुगुप्सा नहीं करना 'निर्विचिकित्सा' नाम का तीसरा दर्शनाचार है । 13 - निव्वितिगिच्छा शब्द के दो अर्थ निकलते हैं - १. निर्विचिकित्सा २. निर्विजुगुप्सा. विचिकित्सा अर्थात् मति का विभ्रम । धर्म करते हुए बाह्य शुभ क्रिया के माध्यम से अंदर में प्रगट होनेवाला शुभ या शुद्ध भाव ही धर्म है । इस धर्म का एक फल है आंतरिक निर्मलता या चित्त की शुद्धि एवं दूसरा फल है, पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध । समझ एवं श्रद्धापूर्वक अगर धर्म क्रिया की जाए तो चित्त निर्मलता रूप प्रथम फल तत्काल मिलता है एवं दूसरा फल कभी तत्काल दीखता है एवं कभी विलंब से देखने को मिलता है । चित्त की निर्मलता रूप प्रथम फल को देखने की जिसमें क्षमता नहीं एवं पुण्योदय से प्राप्त होनेवाले बाह्य 13. विचिकित्सा-मतिविभ्रमः, निर्गता विचिकित्सा - मतिविभ्रमो यतोऽसौ निर्विचिकित्सः यद्वा निर्विजुगुप्सः - साधुजुगुप्सारहितः । - हितोपदेश -
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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