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सूत्रसंवेदना-३ अस्तित्व की बातें किसी सामान्य व्यक्ति ने नहीं की, सर्वज्ञ वीतरागने खुद के केवलज्ञान से देखकर ये बातें बताई हैं, केवलज्ञान द्वारा जो पदार्थ को यथार्थ देखते हैं और जो राग द्वेष से सर्वथा परे हैं, वे प्रभु असत्य क्यों बोलेगे ? मेरी बुद्धि की अल्पता के कारण मुझे उनकी बातें समझ में न आएँ, मोहाधीनता के कारण मेरे अनुभव में यह वस्तु न आए, ऐसा हो सकता है, परन्तु प्रभु ने कहा है तो वह सत्य ही है ।" _ऐसा सोचकर जिनवचन को यथार्थ रूप से समझने का प्रयत्न करना चाहिए । योग्य स्थान पर जिज्ञासावृत्ति से प्रश्न पूछकर समाधान पाना चाहिए, परन्तु जिनके आधार पर सुख की साधना का आरम्भ करना है, वैसे जिनवचन में कभी भी शंका नहीं करनी चाहिए । यही निःशंकित नाम का प्रथम दर्शनाचार है । जिनवचन में शंका करना, या समझ में नहीं आता वैसा मानकर शास्त्र समझने की उपेक्षा करना दर्शनाचार विषयक ‘शंका' नाम का अतिचार है ।
संक्षेप में, आत्महित की इच्छा से सच्चे धर्म को खोजना, समझना एवं शंका रहित बनकर जीवन में उसे दृढ़तापूर्वक स्थिर रखना पहला दर्शनाचार है ।
अब स्वीकार किए हुए धर्म की वफादारी रूप दूसरा आचार बताते हैं -
२. निक्कंखिअ - कांक्षा रहित होकर - अन्य धर्म की इच्छा रखे बिना सत्य धर्म को पकड़ कर रखना ‘निष्कांक्षित' नाम का दूसरा दर्शनाचार है ।
जैन धर्म के आचार, विचार तथा पदार्थ अद्वितीय कोटि के हैं । अति उत्तम इस धर्म को प्राप्त करने के बाद अन्य धर्म में चाहे कैसा भी चमत्कार दीखता हो या बाह्य चमकीलापन दीखता हो, तो भी उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। 'ये धर्म भी ठीक है, तत्काल फल देनेवाला है, ऐसा मानकर वह धर्म करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए, परन्तु जिनेश्वर का धर्म ही सत्य है, वही आत्महित करनेवाला है जैसा मानना ‘निष्कांक्षित' नाम का दूसरा दर्शनाचार है ।
कई बार सूक्ष्म समझ के अभाव के कारण अन्य धर्म की थोड़ी तार्किक बातों को सुनकर, कोई चमत्कार देखकर, या किसी कष्ट के बिना सानुकूलता से होते