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________________ नाणमिदंसणम्मि सूत्र इस सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त करने एवं प्राप्त हुए गुण को टिकाने के लिए जो आचरण किया जाता है उसे दर्शनाचार कहते हैं, उसके निम्नलिखित आठ प्रकार हैं - १. निस्संकिअ निःशंकितता नाम का पहला दर्शनाचार है । - भगवान के वचनों में कहीं भी शंका नहीं करना आत्मा वगैरह अतीन्द्रिय पदार्थों का वर्णन करनेवाले शास्त्रवचनों को सुनकर, उन पदार्थो को जानने एवं देखने की इच्छारूप जिज्ञासा जरूर होनी चाहिए एवं उस जिज्ञासा के संतोष के लिए प्रयत्न भी करना चाहिए; परन्तु ये पदार्थ दीखते नहीं है इसीलिए होंगे कि नहीं ? शास्त्र में कहा है वैसे होंगे या अलग होंगे ? ऐसी किसी भी प्रकार की शंका न करना 'निःशंकितता' नाम का प्रथम दर्शनाचार है एवं शंका करना दर्शनाचार विषयक अतिचार है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक शंका को टालकर निःशंकित होना चाहिए । शास्त्र में कहा गया है कि 'मैं जानता हूँ' - 'मैं देखता हूँ' वगैरह वाक्य प्रयोगों में 'मैं' शब्द से आत्मा वाच्य बनती है अर्थात् जानने देखने आदि सब क्रियाओं का कर्ता आत्मा है । वह आत्मा अनंत ज्ञानादि स्वरूप है एवं सुख उसका स्वभाव है । इसके अतिरिक्त वह सहज आनंद का पिंड है । ऐसा होते हुए भी कर्म के साथ संबंध होने के कारण आज उसके गुण ढँक गये हैं, उसकी शक्ति आवृत्त हो गई है, उसको अनेक प्रकार के दुःखों का भाजन बनना पड़ता है । आत्मा के शुद्ध स्वभाव एवं विभाव की वास्तविकता ऐसी हो हुए अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान न होने के कारण छद्मस्थ व्यक्ति को आत्मा, कर्म वगैरह पदार्थ दिखाई भी नहीं देते या अनुभव में भी नहीं आते । इसलिए उसे शंका हो सकती है कि आत्मा, पुण्य-पाप आदि होंगे या नहीं ? ऐसी शंकाओं का सुयोग्य समाधान न मिलता हो तब मन कभी ऐसा सोच बैठता है कि, आत्मादि पदार्थ नहीं होगे । शंका ऐसी नकरात्मक मनोवृत्ति की ओर झुके, उससे पहले मन को समझाना चाहिए कि “आत्मा, पुण्य आदि के
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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