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सूत्रसंवेदना-३
गाथा: निस्संकिअ निक्कंखिअ निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ । उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ ।।३।। संस्कृत छाया: निःशङ्कितं निष्कांक्षितं निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च । उपबृंहा-स्थिरीकरणे, वात्सल्य-प्रभावने अष्ट ।।३।।
गाथार्थ :
निःशंकितता, निष्कांक्षितता, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहणा, स्थिरीकरण, वात्सल्य एवं प्रभावना : ये आठ प्रकार के (दर्शनाचार) हैं । विशेषार्थ :
सद्गुरु के मुख से शास्त्र श्रवण करने से संसार की विचित्रता का बोध होता है एवं आत्महित की इच्छा जागृत होती है, तब अप्रत्यक्ष रुप आत्महित के पथ पर किस तरह चलना चाहिए ? यह मुमुक्षु जीव के लिए महाचिंता का विषय होता है क्योंकि इस जगत् में आत्महित की बातें करनेवाले बहुत हैं, लेकिन राग, द्वेष एवं अज्ञान से भरे हुए लोग जब खुद ही अप्रत्यक्ष आत्मा को देख नहीं पाते या उसे जान नहीं पाते तो वे दूसरों को आत्महित का मार्ग कैसे बता सकते हैं ? आत्मकल्याण का मार्ग वे ही देख सकते हैं एवं दिखा सकते हैं जिन्होंने राग, द्वेष एवं अज्ञान का नाश किया हो एवं जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग बने हों । इसलिए आत्महित के लिए 'जिनेश्वर ने जो कहा है वही सत्य है11 वैसी दृढ़ श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है । 10.शासनात्त्राणशक्तेश्छ, बुधैः शास्त्रं निरुच्यते । वचनं वीतरागस्य, तत्तु नान्यस्य कस्यचित् ।।१२।। वीतरागोऽनृतं नैव, ब्रूयात्तद्धत्वभावतः । यस्तद्वाक्येष्वनाश्वास स्तन्महामोहजृम्भितम् ।।१३।।
- अध्यात्म उपनिषद् अधिकार-१ 11. तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं ।
- आचारांग सूत्र 12.तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।
- तत्त्वार्थ० १-२ ।।