________________
नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
अट्ठविहो नाणमायारो - इस तरह ज्ञान का आचार आठ प्रकार का है। इस प्रकार ज्ञान के आठ आचरों के पालनपूर्वक शास्त्रज्ञान में प्रयत्न करने से ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होता है । उससे ज्ञानगुण की वृद्धि होती है एवं माषतुष मुनि आदि की तरह जीव अंत में केवलज्ञान तक भी पहुँच सकता है । दूसरी तरफ इन आचारों को पालने में प्रमाद करने से अथवा आचारों के पालन बिना ही शास्त्रज्ञान प्राप्त करने के लिए मेहनत करने से, कभी शास्त्र के शब्द-अर्थ का ज्ञान हो जाए, तो भी प्रायः उससे शास्त्र के परमार्थ तक नहीं पहुँच सकते, आत्म परिणति को निर्मल नहीं कर सकते, निजानंद की मौज नहीं मिल सकती। इसलिए श्रुतज्ञान के सहारे जिसे आत्मा का आनंद पाना हो, उसे शास्त्र में बताए हुए आठ आचारों के पालनपूर्वक ही अध्ययन करना चाहिए ।
प्रतिक्रमण की क्रिया करते समय साधक को यह गाथा बोलते हुए सोचना चाहिए,
"जिस ज्ञान के सहारे मुझे अपने दोष देखने हैं, जिसके सहारे मुझे अपनी आत्मा को शुद्ध करना है, उस ज्ञान प्राप्ति का उपाय ये आचार हैं । ये आचार मेरे ज्ञानगुण को प्रगट करने के साधन हैं, वैसा मैं जानता हूँ, तो भी इन आचारों में कहीं पर चूक गया हूँ । यह मुझ से बहुत गलत हुआ है । ज्ञान और ज्ञानाचार की आशातना के दुरंत दुःखदायी फल से बचने के लिए आज के दिन में मेरी जो भी भूल हुई हो, उसे याद करके उसकी मैं निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उस तरीके से मेरे
द्वारा हुए पाप से वापस लौटने के लिए प्रयत्न करता हूँ ।” अवतरणिकाः ज्ञानाचार के बाद अब दर्शनाचार बताते हैं -