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सूत्रसंवेदना - ३
समझना अर्थात् मात्र शब्दार्थ समझना नहीं, परन्तु शब्दार्थ एवं भावार्थ द्वारा अंतिम एदंपर्यार्थ (तात्पर्यार्थ ) तक पहुँचने का प्रयत्न करना । समझे हुए तात्पर्यार्थ को जीवन में इस तरीके से उतारना कि जिससे संयमादि गुणों की वृद्धि हो । इस प्रकार अर्थ के लिए होनेवाला आचरण सातवाँ ज्ञानाचार है । अर्थ का चिन्तन किये बिना सूत्र को यथा स्वरूप बोलना अथवा अर्थ भेद करना 'अर्थ' विषयक ज्ञान का अतिचार है ।
८. तदुभए - शब्दशुद्धि के साथ अर्थशुद्धि पूर्वक अध्ययन करना 'तदुभय' नाम का ज्ञान का आठवाँ आचार है ।
बहुत बार सूत्र का शुद्ध उच्चारण होता है, परन्तु अर्थ का विचार नहीं होता, तो कभी-कभी अर्थ का विचार होता है, परन्तु सूत्र का शुद्ध उच्चारण नहीं होता ऐसा होने पर ज्ञानविषयक तदुभयाचार नहीं हो सकता । इसलिए तदुभयाचार का पालन करने के लिए साधक को सूत्र एवं अर्थ दोनों को स्वनामवत् (अपने नाम की तरह) ऐसा स्थिर करना चाहिए कि शब्द बोलते ही तुरंत उसका अर्थ- भावार्थ स्पष्ट हो जाए, इसी प्रकार अर्थ का विचार करते हुए तुरंत सूत्र उपस्थित हो जाए । इस प्रकार सूत्र तथा अर्थ दोनों की उपस्थिति ज्ञानाचार का तदुभय नाम का आठवाँ आचार है एवं दोनों में से एक की भी शुद्धि का ख्याल नहीं रखना 'तदुभय' विषयक ज्ञानाचार का अतिचार है ।
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शास्त्र में तो कहा गया है कि सूत्र के एक पद का भी उच्चारण' गलत हो तो अर्थ गलत हो जाता है एव अर्थ गलत हो तो क्रिया गलत होती है । क्रिया गलत हो तो मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । अगर क्रिया से मोक्ष प्राप्त न हो तो साधु या श्रावक के तपादि कष्टदायक अनुष्ठान भी निरर्थक साबित होंगे । इस कथन से शुद्ध उच्चारण एवं शुद्ध लेखन का कितना महत्त्व है, यह समझा जा सकता है । 1
9. तत्र व्यञ्जन्त्यर्थमिति व्यञ्जनानि - अक्षराणि तेषामन्यथाकरणे न्यूनाधिकत्वे वाऽशुद्धत्वेनानेके महादोषा महाशातनासर्षैज्ञाज्ञाभङ्गादयः, तथा व्यञ्जनभेदेऽर्थभेदस्तद्भेदे च क्रियाभेदः क्रियाभेदे च मोक्षाभावः तदभावे च निरर्थकानि साधु - श्राद्ध-धर्माराधन तपस्तपनोपसर्गसहनादिकष्टानुष्ठानान्यपि ।
- आचार प्रदीप