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________________ नाणंमि दंसणम्मि सूत्र ५३ इसलिए इस निह्नव नाम के अतिचार से बचने की खास सावधानी रखनी चाहिए । इस अतिचार से बचने के लिए गुरु के अपलाप की तरह श्रुत का भी अपलाप नहीं करना चाहिए । जितना श्रुत पढा हो उतना ही कहना चाहिए । उससे कम या ज्यादा नही कहना चाहिए । ६. वंजण - शब्द का शुद्ध उच्चारणपूर्वक श्रुताध्ययन करना “व्यंजन" नाम का ज्ञान का छट्ठा अतिचार है। 'व्यज्यते अनेन अर्थः इति व्यञ्जनम्" जिससे अर्थ प्रकट हो वह व्यंजन । इस प्रकार सभी अक्षर व्यंजन कहलाते हैं । जो शास्त्र या सूत्र पढा जाए उसके प्रत्येक अक्षर का उच्चारण या लिखावट शुद्ध होनी चाहिए । काना, मात्रा, अनुस्वार, लघुगुरु या पदच्छेद आदि में कही भी अशुद्धि नहीं रहनी चाहिए क्योंकि, अशुद्ध लिखावट या अशुद्ध उच्चारण अर्थ का अनर्थ करते हैं, जैसे कि 'अधीयताम्' का अर्थ है पढ़ाइये पर अनुस्वार बढ़ाकर 'अंधीयताम्' बोलने से उसका अर्थ 'उसे अंधा कर दो' ऐसा होता है। भूल से एक अनुस्वार या मात्रा आदि बढ़ाने या कम करने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है । इसलिए शास्त्र पढ़कर जिसे शास्त्र वचनों के परिणाम पाने की इच्छा हो, उसे सर्व प्रथम सद्गुरु भगवंत के पास प्रत्येक सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना सीखना चाहिए, तो ही व्यंजन विषयक ज्ञान के छठे आचार का पालन होता है एवं अशुद्ध उच्चारण या लेखन करने से 'व्यंजन' विषयक ज्ञान का अतिचार लगता है । ७. अत्थ - अर्थ को समझते हुए शास्त्राध्ययन करना 'अर्थ' नाम का सातवाँ अतिचार है । सूत्र का अध्ययन करने के बाद, सद्गुरु भगवंत के पास सूत्र या शब्द का यथा संदर्भ अर्थ को विधिवत् समझना 'अर्थ' नामक ज्ञानाचार है । अर्थ 8. एक ही शब्द का अर्थ करते हुए आगे-पीछे का संदर्भ ध्यान में न लिया जाय तो अर्थ के बदले अनर्थ हो जाता है । जैसे कि 'नरवृषभ' मनुष्यों में श्रेष्ठ अर्थ शास्त्रों मे संमत है, परन्तु संदर्भ का विचार किए बिना कोई उसका अर्थ 'मनुष्य में बैल' ऐसा करें तो वह ठीक नहीं ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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