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सूत्रसंवेदना-३
नवकार मंत्र वगैरह सूत्रों के अधिकार के लिए श्रावक-श्राविकाओं को पौषध सहित उपवास, आयंबिल या कम से कम निवि का पच्चक्खाण एवं कायोत्सर्ग, खमासमण, देववंदन वगैरह शुभ क्रिया द्वारा उपधान करवाया जाता है । आगम आदि के अध्ययन के लिए साधु-साध्वीजी भगवंतों को योगोद्वहन की क्रिया कराई जाती है । इस क्रिया से मन निर्मल बनता है, इन्द्रियाँ शांत एवं स्थिर रहती हैं, परिणाम स्वरूप जो शास्त्राध्ययन होता है, वह अपूर्व भावों का दर्शन कराता है । इसके द्वारा आत्मा का विशिष्ट आनंद प्रकट होता है । इसलिए शास्त्र के माध्यम से आत्मिक भावों को देखने की या पाने की इच्छावाले साधक को इस उपधान नाम के आचार का अवश्य पालन करना चाहिए । इस आचार के पालन के बिना स्वेच्छानुसार जो शास्त्राध्ययन करते हैं, उन्हें ज्ञानाचार का दोष लगता है ।
५. तह अनिण्हवणे - गुरु या सिद्धांत आदि का अपलाप न करना, 'अनिह्नव' नाम का ज्ञान का पाँचवाँ आचार है ।
कृपा का झरना बहाकर जिन गुरु भगवंतों ने हमें ज्ञानामृत का पान करवाया हो, उनके उपकार को आजीवन न भूलना, समय समय पर अपने उपकारी के तौर पर उनको याद करना, 'अनिहनव' नाम का ज्ञानाचार है । जिन गुरु भगवंत के पास ज्ञानाभ्यास किया हो, वे उच्च कुलादि के न हों या प्रसिद्ध न हों तो उनका अपलाप कर अपने गौरव के लिए विद्यादाता के तौर पर कोई युगप्रधान आदि बड़े गुरु का नाम देना अथवा 'मैं स्वयं ही पढ़ा हूँ,' ऐसा कहना, ज्ञानाचार विषयक अतिचार है । इस तरह गुरु का अपलाप करनेवाला निह्नव गिना जाता है । गुरु का अपलाप करने से महापाप लगता है । अन्य शास्त्रों में भी कहा गया है कि,
“एक अक्षर को भी ज्ञान प्रदान करनेवाले गुरु को जो गुरु नहीं मानता, उसको सौ बार कुत्ते की योनि में उत्पन्न होकर चांडाल आदि की योनि में जन्म लेना पड़ता है ।"