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________________ नाणंमि दंसणम्मि सूत्र ३. बहुमाणे - ज्ञान, ज्ञान के साधनों तथा ज्ञानी पुरुषों के प्रति हृदय में प्रीति होना 'बहुमान' नाम का तीसरा ज्ञानाचार है। ज्ञानी भगवंतों आदि के दर्शन कर 'ये मुझ से महान हैं । ये ही भवसागर से पार करानेवाले हैं। ऐसा मानकर उछलते हृदय से उनकी भक्ति करने का अंदर का भाव होना तथा ज्ञान के साधनों एवं ज्ञानगुण के प्रति अंतरंग प्रीति होनी ज्ञान के विषय में 'बहुमान' नाम का आचार है, एवं ज्ञान तथा ज्ञानी के बहुमान के बिना पढ़ना ज्ञानाचार का अतिचार है । बाह्य से विनय दिखाई देता हो, परन्तु जब तक ज्ञानी पुरूषों के प्रति हृदय में बहुमान का भाव न हो, तब तक ज्ञान प्राप्ति में विघ्न करनेवाले कर्मों का नाश नहीं होता । इसलिए बाह्य विनय के साथ ज्ञानी के प्रति अंतरंग बहुमान का परिणाम भी ज्ञानगुण की प्राप्ति के लिए अति आवश्यक है । ज्ञान एवं ज्ञानी के प्रति बहुमान के बिना शास्त्राध्ययन करनेवाले का ज्ञान आत्मिक सुख प्राप्त नहीं करवा सकता । इसलिए 'बहुमान' नाम के आचार के अभाव अथवा विपरीत आचार को ज्ञानाचार का अतिचार कहते हैं । । ४. उवहाणे - शास्त्र के अध्ययन के लिए किए जानेवाले तप को उपधान कहते हैं जो ‘उपधान' नाम का ज्ञान का चौथा आचार है । जिस क्रिया से आत्मा, ज्ञानप्राप्ति का अधिकारी बनकर ज्ञान के अभिमुख होती है अथवा ज्ञान परिणति के योग्य बनती है, वैसी तपादि क्रिया को उपधान कहते हैं । विगई वाला आहार एवं बारबार ग्रहण किया हुआ आहार मन में विकृति पैदा करता है एवं इन्द्रियों को चंचल करता है । मन एवं इन्द्रियों की ऐसी अवस्था में किया हुआ शास्त्राध्ययन पदार्थ बोध तो करवाता है, परन्तु आत्मा में आनंद का झरना बहाकर, आत्माभिमुख भाव प्रगट नहीं करता । इस कारण से सूत्र का ज्ञान पाने के लिए शास्त्र में 'उपधान तप' का विधान किया गया है । 7. बहुमाना अभ्यन्तरः प्रीतिप्रतिबन्धः । - आचार प्रदीप
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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