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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
४९ विशेषार्थ :
सर्वज्ञकथित शास्त्र के आधार से वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानना ज्ञान है एवं ज्ञान को प्राप्त करने के लिए जो शुभ आचरण किया जाए, उसे ज्ञानाचार कहते हैं । यह ज्ञानाचार निम्नोक्त आठ प्रकार का है ।।
१. काले - काल के नियम का अनुसरण करना 'काल' नाम का प्रथम ज्ञानाचार है ।
किसी भी कार्य की सिद्धि में काल भी एक महत्त्वपूर्ण कारण होता है । इसलिए ज्ञानप्राप्ति के लिए शास्त्र में जो समय सूचित किया गया हो, उसी समय उस शास्त्र का अध्ययन करना कालविषयक प्रथम ज्ञानाचार है । काल मर्यादा का ध्यान रखते हुए शास्त्राभ्यास करने से ज्ञानावरणीय कर्म का नाश होता है एवं मर्यादा का उल्लघंन करने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है ।
ज्ञानप्राप्ति के लिए निश्चित समय पर पढ़ना, कालमर्यादा है, वैसे दूसरी भी अनेक काल मर्यादाएँ हैं, जैसे शास्त्रानुसार ज्ञानोपासना का समय हुआ हो, उसी समय अपने बुजूर्ग या सहवर्ती व्याधिग्रस्त हों एवं उन्हें सेवा की जरूरत हो, तब सेवा की उपेक्षा करके ज्ञानोपसना करना अनुचित होने से ज्ञानोपासना के लिए वह समय अकाल कहलाता है । उस समय पढने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है एवं तब ग्लान की (बीमार व्यक्ति की) सेवा करने से भी ज्ञानावरणीय कर्म का नाश होता है ।
इस प्रकार किस समय अपने लिए क्या करना उचित है, उसका विवेकपूर्वक विचारकर शास्त्र ज्ञान के लिए प्रयत्न करनेवाला साधक ही इस आचार का यथार्थ पालन कर सकता है । फलतः वह अपने ज्ञान गण की वृद्धि भी कर सकता है।
यहाँ यह खास ध्यान में रखना चाहिए कि, अकाल में पढ़ने से जैसे दोष है, 5. अकाल : सूर्योदय के पहले, सूर्यास्त के बाद तथा मध्याह्न की ४८ मिनिट काल वेला ‘अकाल' गिनी जाती है । इस समय शास्त्राभ्यास नहीं करना चाहिए । इसके अलावा भी आगमादि के अध्ययन के लिए जो अकाल गिना जाता है उसकी विशेष जानकारी गुरु भगवंत से प्राप्त करनी चाहिए । शास्त्र अध्ययन करनेवाले को काल मर्यादा का खास पालन करना चाहिए ।