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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
४७ गुण को प्रकट करने एवं प्रगट हुए उस गुण में वृद्धि करने के लिए जो बाह्य एवं अंतरंग आचरण (प्रवृत्ति) किया जाए उसे ज्ञानाचार कहते हैं ।
२ - दर्शनाचार : तत्त्वभूत पदार्थ की यथार्थ रुचि अथवा श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, सम्यग्दर्शन गुण को प्रकट करने एवं प्रकट हुए इस गुण को अधिक निर्मल करने के लिए जो आचरण होता है, वह दर्शनाचार है ।।
३ - चारित्राचार : सावध प्रवृत्तियों का आंशिक (देश से) अथवा सर्वथा त्याग कर, निरवद्य प्रवृत्तिपूर्वक आत्मभाव में स्थिर होने का प्रयत्न, चारित्र है एवं इस चारित्रगुण के पालन एवं वर्धन के लिए जो आचरण होता है वह चारित्राचार है ।
४ - तपाचार : जिससे रसादि धातु अथवा कर्म तपे उसे तप कहते हैं । कहा गया है कि 'तपसा निर्जरा च" तप से कर्म की निर्जरा (एवं संवर) होती है । तप गुण के पालन एवं उसकी वृद्धि के लिए (बारह प्रकार के तप में) किया हुआ आचरण तपाचार है । तपाचार चारित्र की ही आंतरिक भूमिका रूप है।
५ - वीर्याचार : जीव का सामर्थ्य, आत्मा का बल या शक्ति को वीर्य कहते हैं । इस वीर्य का शक्ति से न अधिक न कम अर्थात् यथाशक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुणों में प्रवर्तन करना वीर्याचार है ।
इन पांचों आचारों का पालन ज्ञानादि गुणों में वृद्धि करता है । पंचाचार के पालन के बिना प्राप्त किए वे गुण आत्म कल्याणकारी नहीं बन सकते। इसलिए मोक्षार्थी जीव को मोक्ष के उपायभूत इन आचारों के पालन में अवश्य यत्न करना चाहिए । 'श्रुतज्ञान' ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होनेवाला गुण है, तो भी यह क्षयोपशम शास्त्र द्वारा होता है, इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके शास्त्र अध्ययन को भी श्रुतज्ञान
कहते हैं। 2. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।
- तत्त्वार्थ १-२ 3. ताप्यन्ते रसादिधातवः कर्माणि वा अनेनेति तपः ।
- धर्मसंग्रह भाग-२ 4. तत्त्वार्थ अ. ९, सू. ३