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सूत्रसंवेदना-३ अणिगूहिअ-बल-वीरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ अ जहाथाम, नायव्वो वीरिआयारो ।।८।। टिप्पणी : इस सूत्र में पाठक की सुविधा के लिए प्रत्येक गाथा की अन्वय सहित संस्कृत छाया एवं गाथार्थ विशेषार्थ के साथ ही दिया गया है ।
पद-३२, संपदा-३२, अक्षर-२८४ गाथा: नाणम्मि दंसणम्मि अ, चरणम्मि तवम्मि तह य वीरियम्मि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ ।।१।।
अन्वय सहित संस्कृत छाया: ज्ञाने दर्शने च चरणे, तपसि तथा च वीर्ये । आचरणम् आचारः, इति एष पञ्चधा भणितः ।।१।।
गाथार्थ:
ज्ञान के विषय में, दर्शन के विषय में, चारित्र के विषय में, तप के विषय में तथा वीर्य के विषय में जो आचरण है वही (ज्ञानादि) आचार है । इस तरीके से यह आचार पांच प्रकार का है ।
विशेषार्थ :
ज्ञानादि पांचों गुणों को प्रगट करने के बाह्य तथा आंतरिक सम्यक् प्रयत्न को ज्ञानाचार आदि पाँच आचार कहते हैं । वे इस प्रकार हैं :
१ - ज्ञानाचार : जिसके द्वारा आत्मकल्याण का मार्ग जाना जा सकता है याने कि, मोक्ष मार्ग के उपायों का बोध हो सकता है, वह ज्ञान है । इस ज्ञान
1. ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् - जिसके द्वारा जाना जाए वह ज्ञान । ज्ञान के मति - श्रुत -
अवधि, मनःपर्यव एवं केवल ये पाँच भेद हैं, तो भी यहाँ इन पाँचों मे से 'श्रुत' का ग्रहण करना है; क्योंकि श्रुतज्ञान के लिए ही काल, विनयादि बनाये रखने का प्रयत्न कर सकते हैं । जब कि