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सूत्रसंवेदना - ३
गाथा में बताया गया है । तदुपरांत तप धर्म के बाह्य एवं अंतरंग भेदों का वर्णन इस सूत्र की छट्ठी एवं सातवीं गाथा में किया गया है ।
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तन, मन एवं धन की शक्ति के सद्व्यय के बिना एक भी आचार का पालन संभव नहीं है । पाँचों आचारों में इनकी शक्ति का उपयोग किस तरीके से तथा कितना करना चाहिए, उसको बतानेवाले आचार का नाम वीर्याचार है । इस वीर्याचार के पूर्ण पालनपूर्वक ज्ञानादि गुणों के लिए यत्न किया जाए तो उन
गुणों की प्राप्ति तथा वृद्धि अच्छे तरीके से हो सकती है । इसलिए सर्व गुणों को प्राप्त करने के लिए इन आचारों का अच्छी तरह समझकर पालन करना अनिवार्य है । पांचों आचारों में व्यापक वीर्याचार का वर्णन आँठवी गाथा में है ।
इस प्रकार आठ गाथाओं से बने हुए इस सूत्र के माध्यम से पाँचों आचारों को जानना चाहिए । जानकर शक्ति के अनुसार अच्छी तरह उनका पालन करना चाहिए । ज्यों ज्यों इन आचारों का पालन होगा, त्यो त्यों आत्मिक गुण वृद्धिमान एवं निर्मल होंगे, अन्यथा उनमें मलिनता आ जाएगी ।
आत्मिक गुणों में आई मलिनता को दूर करने के लिए साधक प्रतिक्रमण करता है । प्रतिक्रमण करते समय कायोत्सर्ग में वह काया को स्थिर करके, मौन धारण करके, मन को इस सूत्र में एकाग्र करके, सूत्र के प्रत्येक पद पर गहराई से आलोचन करता है । दिन भर की प्रवृत्ति के उपर दृष्टिपात करता है एवं किन आचारों को चूक गया या विपरीत किया वह याद करता है । जहाँ दोष की संभावना लगती है, उसे ध्यान में रखता है एवं प्रतिक्रमण में उन उन अवसरों पर उन दोषों का पुनरावर्तन न हो ऐसे भावपूर्वक, उन दोषों मुक्त होने का यत्न करता है I
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इस सूत्र में बताए हुए पाँचों आचारों के एक एक प्रभेद को बताने के लिए भी महापुरुषों ने अनेक ग्रंथ लिखे हैं । जैसे कि, अनशन नाम के तप की जानकारी के लिए पच्चक्खाण भाष्य, ध्यान के विषय को बताने के लिए ध्यानशतक, कायोत्सर्ग की समझ के लिए कायोत्सर्ग नियुक्ति आदि । संस्कृतप्राकृत में तो अनेक ग्रंथों की रचना की है पर गुजराती वगैरह लोक भोग्य भाषा