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'इच्छामि ठामि' सूत्र . ४१ किसी भी व्रत में अनाभोग से या प्रमादादि दोष के कारण जो खंडनाविराधना हुई हो उनका इस तरीके से आलोचना एवं प्रतिक्रमण द्वारा 'मिच्छा मि दुक्कडं' देना चाहिए, एवं जो व्रत भंग हुआ है, उसका प्रायश्चित्त विशेष प्रकार से गुरु भगवंत के पास करना चाहिए । इन पदों का उच्चारण करते समय साधक सोचता है,
“शक्ति होने के बावजूद मैंने ऐसे उत्तम ब्रतों का स्वीकार नही किया । जब स्वीकार किया तब उनका शुद्ध पालन करने के लिए जो यत्न करना चाहिए वह नहीं किया । जिसके कारण कभी मुझ से व्रत खंडित हो गए तो कभी विराधित हो गए । हे भगवंत ! दुःखाई दिल से उन सब दोषों की मैं क्षमा चाहता हूँ एवं फिर ऐसी गलती न हो ऐसे संकल्पपूर्वक 'मिच्छा मि दुक्कडं' देता हूँ।"