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सूत्रसंवेदना-३ माया तो करनी ही पड़ती है, दुनिया में सर्वत्र पैसे का जोर चलता है । इसलिए ज्यादा से ज्यादा धन होना जरूरी है, मान नहीं होना चाहिए परन्तु स्वाभिमान होना तो जरूरी है,' ऐसी बातें करना या किसी को ऐसा समझाना कषाय संबंधी विपरीत प्ररूपणा है, ऐसी विपरीत प्ररूपणा भी कषायों का खंडन है । इस पद का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है,
“कषाय हेय हैं, अनर्थकारी हैं, इसलिए मुझे उनका त्याग करना चाहिए या सर्वथा उनका त्याग न हो सके तब तक मुझे उन्हें देव-गुरु और धर्मादि अच्छे स्थान पर लगाकर उनको मंद, मंदतर कक्षा के बनाने का प्रयत्न करना चाहिए; लेकिन मैने इन कषायों को सांसारिक भावो में जोड़कर उनको बढ़ाया है। भगवंत ! यह मैंने बहुत गलत किया है । उसकी आलोचना निंदा एवं गर्दा करता हूँ । एवं पुनः ऐसा न हो वैसा संकल्प
करके मिच्छा मि दुक्कडं' देता हूँ ।” पंचण्हमणुव्वयाणं - पांच अणुव्रतों का (जो कोई खंडन या विराधन हुआ हो उसका मिच्छा मि दुक्कडं) ।
स्थूल से (१) हिंसा विरमण, (२) झूठ विरमण, (३) चोरी विरमण, (४) स्वदारा संतोष एवं मैथुन विरमण तथा (५) परिग्रह के परिमाण का नियम करना - ये पाँच अणुव्रत है । 19.पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतों एवं उनके अतिचारों का विस्तार
से वर्णन वंदित्तु सूत्र में आगे किया गया है । उनको जानने की इच्छावाले (सूत्र सं.भा. ४) में देख ले विस्तार के भय से यहां उसे नहीं लिया गया है। साधु-साध्वीजी भगवंतों के लिए यहां से यह सूत्र अलग पड़ता है उसमें 'पंचण्हं महव्वयाणं, छण्हं जीवनिकायाणं, सत्तण्हं पिण्डेसणाणं, अट्ठण्हं पवयणमाउणं, नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं, दसविहे समणधर्म, समणाणं जोगाणं' ऐसा पाठ है । पांच महाव्रत, छ जीव निकाय सात प्रकार के अन्न-पानी की एषणा, आठ प्रवचन माता, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति एवं दस प्रकार के श्रमण धर्म में जो कोई खंडन-विराधन हुआ हो उनका ‘मिच्छा मि दुक्कडं' इन शब्दों द्वारा दिया जाता है।