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सूत्रसंवेदना-३
चउण्हं-कसायाणं - चार कषायों का, (जो कोई खंडन या विराधन हुआ हो उसका मिच्छा मि दुक्कडं ?। ___ क्रोध, मान, माया एवं लोभ : ये चार कषाय कर्म के उदय से होनेवाले आत्मा के विकार हैं । ये क्षमा, नम्रता, सरलता एवं संतोष आदि आत्मिक गुणों का नाश करते हैं एवं असहिष्णुता, अहंकार, कपट, असंतोष आदि दोषों को प्रकट कर आत्मा को दुःखी करते हैं । इसलिए आत्मिक सुख पाने की इच्छा रखनेवाले प्रत्येक साधक को कषाय का शमन एवं अंत में कषायों का संपूर्ण नाश करने का सतत प्रयत्न करना चाहिए । उसके लिए योगशास्त्र आदि ग्रंथों का सहारा लेकर शुभ भावनाओं से हृदय को भावित करना चाहिए, जिससे निमित्त मिलने पर भी कषाय चित्त पर अपना वर्चस्व जमाकर आत्मा का अहित न कर सके ।
कषायों का नाश करने का प्रयत्न होने पर भी साधक अवस्था में निमित्त मिलने पर कभी कषाय उठते रहते हैं एवं साधक से स्वीकार किए गए व्रतनियम आदि की मर्यादा तुड़वाते हैं ।
इस प्रकार कषायों के कारण व्रतादि का खंडन होता है, फिर भी इस पद द्वारा कषायों से होनेवाले व्रतादि के खंडन का 'मिच्छा मि दुक्कडं' नहीं देना है। परन्तु कषायों के खंडन के लिए 'मिच्छा मि दुक्कडं' देना है । अब प्रश्न होता है कि, कषायों का खंडन और कषायों की विराधना किस तरीके से होती हैं ? इसका स्पष्टीकरण आवश्यकनियुक्ति दीपिका, योगशास्त्र, धर्मसंग्रह आदि ग्रंथों में किया गया है । उनमें धर्म संग्रह के कर्ता प.पू.मानविजयजी महाराज ने बताया है कि प्रतिषिद्ध कषाय का करण, करने योग्य कषाय का अकरण, कषाय के स्वरूप के प्रति अश्रद्धा एवं उसके संबंधी विपरीत प्ररूपणा; ये सब कषायों के खंडन स्वरूप हैं, इसलिए अकरणीय हैं ।
जैसे कि, साधु साध्वीजी भगवंत को भी शिष्य की सारणा-वारणा आदि करने के अवसर पर कभी क्रोध करना पडे अथवा निमित्ताधीन बनकर उनमें भी जब क्रोधादि कषाय हो जाए तब भी खास खयाल रखना चाहिए कि, अपनी भूमिका में मात्र संज्वलन कषाय ही क्षतव्य कहलाते है । यदि इस मर्यादा का कभी भंग हो जाए और कषाय की तीव्रता बढ़ जाए और वह कषाय