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'इच्छामि ठामि' सूत्र
आवश्यकता होने पर साधना के एक अंगरूप समिति के मालनपूर्वक मनवचन काया का प्रवर्तन करना चाहिए ।
ऐसा होते हुए भी अनादिकाल के कुसंस्कारों के कारण, निमित्त मिलने पर मन एवं इन्द्रियां कईबार चंचल बन जाती हैं, साधना जीवन में बाधक बने ऐसे विचार आ जाते हैं, जैसे कि, आवाज आते ही विचार आता है कि 'कौन आया है ? क्या कह रहा है ? किसकी बात कर रहा है ?' ऐसे निरर्थक विचार एकाग्र मन से हो रही आत्मसाधक क्रिया में बाधक बनते हैं। इसलिए ऐसे अनावश्यक मनोव्यापार मनोगुप्ति में अतिचार रूप बनते हैं ।
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इसी तरह बातों के रस के कारण अनावश्यक बोलना, जरूरी भी सामायिक के उपयोग के बिना बोलना, मुँह पर मुहपत्ती रखे बिना बोलना वगैरह वचन गुप्ति के अतिचार रूप हैं ।
इसके अतिरिक्त, मोक्ष की साधना करनेवाले साधक को अपने शरीर को संकुचित रखना चाहिए । आवश्यकता के बिना हाथ-पैर तो क्या आँख की पुतली भी न फिरे उसका ध्यान रखना चाहिए । ऐसा होते हुए भी काया की कुटिलता एवं इन्द्रियों की चंचलता के कारण भगवान की आज्ञा का विचार किए बिना अनावश्यक, जैसे-तैसे काया का प्रवर्तन करना कायगुप्ति एवं इर्यासमिति आदि में अतिचार रूप है ।
इस पद का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है,
“तीन गुप्ति का आसेवन संवर भाव का अनन्य कारण है” ऐसा जानते हुए भी मुझ से बहुतबार समिति और गुप्ति का खंडन हुआ है । जिससे कर्म बांधकर मैंने भवभ्रमण बढ़ाया है ।
हे भगवंत ! इन सब अपराधों को स्मृति में लाकर, पुनः ऐसी गलतियाँ न हों ऐसे संकल्पपूर्वक मैं आलोचना- निंदा-गर्हा करता हूँ एवं उन पाप संबंधी 'मिच्छामि दुक्कडं' देता हूँ ।