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सूत्रसंवेदना-३
भी उसका चारित्र सर्वविरति की अपेक्षा से एक अंशरूप होता है, इसलिए उसे देशविरति चारित्र ही कहते हैं । साधु की दया २० वसा की होती है, जब कि श्रावक की मात्र १२ (सवा) वसा होती है। देशविरति चारित्र को स्वीकार करनेवाले श्रावक को जयणाप्रधान जीवन जीना चाहिए; बोलते, चलते, खाते-पीते, कोई भी क्रिया करते समय अपने से निष्कारण हिंसा न हो जाए उसका सतत ख्याल रखना चाहिए । ऐसा ख्याल रखते हुए भी, कभी कभी उपयोग न होने से या प्रमादादि दोषों के कारण दिन के दौरान हुए कार्यों में जहाँ जहाँ जयणा का पालन न हुआ हो, अनावश्यक हिंसा से बचने के लिए प्रयत्न न किया हो या एक से बारह तक के जो व्रत जिस स्वरूप में स्वीकार किए हों, उन व्रतों में छोटे-बड़े जो भी कोई दोष लगे हों, वे सब देशविरति के विषय में अतिचार हैं । इस पद का उच्चारण करते हुए सोचना चाहिए कि,
“सर्वविरति स्वीकारने की तो मेरी शक्ति नहीं है । उस शक्ति के प्रादुर्भाव के लिए ही मैंने देशविरति का स्वीकार किया है । लेकिन प्रमाद आदि दोषों के कारण मैं उनका सूक्ष्मता से पालन नही कर पाया हूँ । ये मैंने बहुत गलत किया है । उनसे मैंने अपने चारित्र गुण को मलिन किया है । हे भगवंत ! चारित्र को मलिन करनेवाले सर्व अतिचारों की आप के समक्ष मैं आलोचनौ करता हूँ । ऐसे दोषों का पुनः सेवन न हो ऐसे संकल्पपूर्वक मैं उनकी निंदा-गर्दा करके उनकी शुद्धि के लिए यत्न करता हूं।" यहाँ इतना खास ध्यान में लेना है कि, इस 'चरित्ताचरित्ते' शब्द के स्थान पर महाव्रतधारी श्रमण भगवंत 'चरित्ते' शब्द बोलते हैं क्योंकि उन्होंने सर्व प्रकार की पापप्रवृत्ति के विरामरूप सर्वविरति का याने पूर्ण चारित्र धर्म का स्वीकार किया है ।