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'इच्छामि ठामि' सूत्र
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गाथा में दर्शित शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, कुलिंगियों की प्रशंसा एवं परिचय इन पाँचों अतिचारों = दोषों का आसेवन करना, वह सम्यग्दर्शन के विषय में अतिचार है ।
इसके उपरांत प्रभुप्रतिमा की, जिनमंदिर की स्थापनाचार्य की या सम्यग्दृष्टि श्रावक-श्राविका की आशातना करना, देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य आदि की उपेक्षा करना, शक्ति होते हुए भी उनकी रक्षा का उपाय न करना, साधर्मिक की देखभाल न करना, ये सब दर्शनाचार के अतिचार हैं ।
इस पद का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है कि,
“सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन पा सकें ऐसे सुंदर आचार परमात्मा ने बताए हैं, उनकी उपेक्षा कर मैंने ज्ञान-दर्शन विषयक अनेक अतिचार का सेवन करके अपने ज्ञान एवं दर्शन गुण को मलिन किया है । यह मैंने गलत किया है । भगवंत! इन सब दोषों की आलोचना करता हूँ और आत्मा को निर्मल बनाने के लिए ज्ञान एवं दर्शन विषयक आचारों में अधिक प्रयत्नशील बनता हूँ ।”
चरित्ताचरित्ते विषय में,
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चारित्र अचारित्र में अर्थात् देशविरतिरूप चारित्र के
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देश चारित्र : तत्त्व की श्रद्धावाले श्रावक मन से तो संसार से विरक्त होते हैं और सर्व संयम की इच्छावाले भी होते है । फिर भी कर्म के अधीन वे पाप प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते । शक्ति के अनुसार वे स्थूल से पाप प्रवृत्तियों का त्याग करते हैं । जितने अंशों में वे पाप प्रवृत्तियों का त्याग नहीं कर सकते, उतने अंशों में उनकी अविरति कहलाती है । इसलिए उनका चारित्र चारित्र- अचारित्र अर्थात् देशचारित्र या देशविरति कहलाता है ।
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श्रावक भले कितनी ही पाप प्रवृत्तिओं का त्याग करे, सामायिक करे, पौषध करे, चौदह नियम का संकल्प करे या बारह व्रत का स्वीकार करे, तो